दत्तात्रये साधना पितृपक्ष में भगवान दत्तात्रेय के मंत्र जप श्रेष्ठ और सिद्ध विवेचन

दत्तात्रये साधना पितृपक्ष श्राद्धपक्ष में भगवान दत्तात्रेय के मंत्र जप श्रेष्ठ और सिद्ध विवेचन 
पितृ पक्ष में पितृ तर्पण, पिंडदान आदि कार्य करना अधक अनिवार्य होता है। हिंदू धर्म में जितना बाकि  धार्मिक अनुष्ठानों को करना महत्वपूर्ण व लाभदायक माना जाता है। उतना ही नहीं, पितृ पक्ष के दौरान पिंडदान करना भी लाभकारी होता है। बल्कि कहा जाता है पितरों को भी देवताओं के समान माना जाता है। इसलिए इस दौरान लोग बहुत से उपाय व अनुष्ठान आदि करते हैं जिससे उन पर अपने पूर्वजों का आशीर्वाद हमेशा बना रहे।

इसके अलावा ज्योतिष के अनुसार कहा जाता है नाराज पूर्वजों को मनाने के लिए भी पितृ पक्ष का सबसे असरदारी माना जाता है। क्योंकि अगर ये नाराज़ हो जाएं तो जीवन में ऐसी ऐसी परेशानियों का सामना करना पड़ता है जिसके बारे में इंसान सपने में भी सोच नहीं सकता। तो अगर आप भी अपने नाराज़ पूर्वजों को मनाना चाहते हैं औन इनकी कृपा पाना चाहते हैं तो आगे दिए मंत्रों का और इस स्तुति का जाप ज़रूर करें।

जिन जातकों की कुंडली में पितृदोष होते हैं, उन्हें पितृपक्ष में पितृ शांति की पूजा करवानी चाहिए। और साथ ही पितृपक्ष श्राद्धपक्ष में भगवान दत्तात्रेय के मंत्र जप करना चाहिए। इससे मनुष्य को पितृदोष से राहत मिलती है। भगवान दत्तात्रेय का स्मरण मनुष्य को पितृदोषों से दूर तो रखता है साथ ही उनके जीवन में आने वाली समस्याएं भी दूर करता है।

अगर संभव हो तो पितृपक्ष में रोज़ाना  ￰दत्त इन मंत्रों का जप करें या फिर अमावस्या या पूर्णिमा के दिन इनका जप ज़रूर करें।

1. 'श्री दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा'।

2. 'श्री गुरुदेव दत्त'।

3. 'ॐ द्रां दत्तात्रेयाय स्वाहा।'

सनातन वैदिक उपासना एवं सन्यास धर्म में दत्तात्रेय भगवान का विशेष महत्व है। इस पर्व के दिन सद्गृहस्थों के यहां व्रत पूजन तो होता ही है लेकिन दशनाम सन्यासियों के अखाड़ों में विशेष अध्यात्मिक प्रवचन भी चलते हैं जिससे आराधाना और साधना से विशेष पुण्य प्राप्त होता है।

महायोगीश्वर दत्तात्रेय भगवान विष्णु के अवतार हैं। इनका अवतरण मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को प्रदोष काल में हुआ। अतः इस दिन बड़े समारोहपूर्वक दत्त जयंती का उत्सव मनाया जाता है। श्रीमद्भागवत में आया है कि पुत्र प्राप्ति की इच्छा से महर्षि अत्रिके व्रत करने पर 'दत्तो मयाहमिति यद् भगवान्‌ स दत्तः' मैंने अपने-आपको तुम्हें दे दिया-विष्णु के ऐसा कहने से भगवान विष्णु ही अत्रि के पुत्र रूप में अवतरित हुए और दत्त कहलाए। अत्रिपुत्र होने से ये आत्रेय कहलाते हैं।

दत्त और आत्रेय के संयोग से इनका दत्तात्रेय नाम प्रसिद्ध हो गया। इनकी माता का नाम अनसूया है, उनका पतिव्रता धर्म संसार में प्रसिद्ध है। पुराणों में कथा आती है, ब्रह्माणी, रुद्राणी और लक्ष्मी को अपने पतिव्रत धर्म पर गर्व हो गया। भगवान को अपने भक्त का अभिमान सहन नहीं होता तब उन्होंने एक अद्भुत लीला करने की सोची।

भक्त वत्सल भगवान ने देवर्षि नारद के मन में प्रेरणा उत्पन्न की। नारद घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों के पास बारी-बारी जाकर कहा-अत्रिपत्नी अनसूया के समक्ष आपको सतीत्व नगण्य है। तीनों देवियों ने अपने स्वामियों-विष्णु, महेश और ब्रह्मा से देवर्षि नारद की यह बात बताई और उनसे अनसूया के पातिव्रत्य की परीक्षा करने को कहा।

देवताओं ने बहुत समझाया परंतु उन देवियों के हठ के सामने उनकी एक न चली। अन्ततः साधुवेश बनाकर वे तीनों देव अत्रिमुनि के आश्रम में पहुंचे। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। अतिथियों को आया देख देवी अनसूया ने उन्हें प्रणामकर अर्घ्य, कंदमूलादि अर्पित किए किंतु वे बोले हम लोग तब तक आतिथ्य स्वीकार न करेंगे जब तक आप हमें अपने गोद में बिठाकर भोजन नहीं कराती।

यह बात सुनकर प्रथम तो देवी अनसूया अवाक्‌ रह गईं किंतु आतिथ्य धर्म की महिमा का लोप न जए इस दृष्टि से उन्होंने नारायण का ध्यान किया। अपने पतिदेव का स्मरण किया और इसे भगवान की लीला समझकर वे बोलीं- यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो ये तीनों साधु छह-छह मास के शिशु हो जाएं। इतना कहना ही था कि तीनों देव छह मास के शिशु हो रुदन करने लगे।








तब माता ने उन्हें गोद में लेकर दुग्ध पान कराया फिर पालने में झुलाने लगीं। ऐसे ही कुछ समय व्यतीत हो गया। इधर देवलोक में जब तीनों देव वापस न आए तो तीनों देवियां अत्यंत व्याकुल हो गईं। फलतः नारद आए और उन्होंने संपूर्ण हाल कह सुनाया। तीनों देवियां अनसूया के पास आईं और उन्होंने उनसे क्षमा मांगी।

देवी अनसूया ने अपने पातिव्रत्य से तीनों देवों को पूर्वरूप में कर दिया। इस प्रकार प्रसन्न होकर तीनों देवों ने अनसूया से वर मांगने को कहा तो देवी बोलीं-आप तीनों देव मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हों। तथास्तु- कहकर तीनों देव और देवियां अपने-अपने लोक को चले गए।


कालांतर में ये ही तीनों देव अनसूया के गर्भ से प्रकट हुए। ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से दत्तात्रेय श्रीविष्णु भगवान के ही अवतार हैं और इन्हीं के आविर्भाव की तिथि दत्तात्रेय जयंती कहलाती है। भगवान दत्तात्रेय कृपा की मूर्ति कहे जाते हैं। दत्त भगवन के 24 गुरु प्रसीध है इन्हे समझिये  

भगवान् दत्तात्रेय और उनके 24 गुरू :------

1- पृथ्वी ----

      सहनशीलता और परोपकार की भावना पृथ्वी से सीख सकते हैं। पृथ्वी पर लोग कई प्रकार के आघात करते हैं, कई प्रकार के उत्पात होते हैं, कई प्रकार खनन कार्य होते हैं, लेकिन पृथ्वी हर आघात को परोपकार का भावना से सहन करती है।

2- पिंगला वेश्या -----

       पिंगला नाम की वेश्या से दत्तात्रेय ने सबक लिया कि केवल पैसों के लिए जीना नहीं चाहिए। पिंगला सिर्फ पैसा पाने के लिए किसी भी पुरुष की ओर इसी नजर से देखती थी कि वह धनी है और उससे धन प्राप्त होगा। धन की कामना में वह सो नहीं पाती थी। जब एक दिन पिंगला वेश्या के मन में वैराग्य जागा तब उसे समझ आया कि पैसों में नहीं बल्कि परमात्मा के ध्यान में ही असली सुख है, तब उसे सुख की नींद आई।

3- कबूतर ----- 

      कबूतर का जोड़ा जाल में फंसे बच्चों को देखकर खुद भी जाल में जा फंसता है। इनसे यह सबक लिया जा सकता है कि किसी से बहुत ज्यादा मोह दुख की वजह होता है।

4- सूर्य ---- 

      सूर्य से,  दत्तात्रेय ने सीखा कि जिस तरह एक ही होने पर भी सूर्य अलग-अलग माध्यमों से अलग-अलग दिखाई देता है। आत्मा भी एक ही है, लेकिन कई रूपों में दिखाई देती है।

5- वायु ---- 

       जिस प्रकार अच्छी या बुरी जगह पर जाने के बाद भी वायु का मूल रूप स्वच्छता ही है। उसी तरह अच्छे या बुरे लोगों के साथ रहने पर भी हमें अपनी अच्छाइयों को छोड़ना नहीं चाहिए।

6- हिरण ------ 

      हिरण उछल-कूद, मौज-मस्ती में इतना खो जाता है कि उसे अपने आसपास शेर या अन्य किसी हिसंक जानवर के होने का आभास ही नहीं होता है और वह मारा जाता है। इससे यह सीखा जा सकता है कि हमें कभी भी मौज-मस्ती में इतना लापरवाह नहीं होना चाहिए।

7- समुद्र ----

      जीवन के उतार-चढ़ाव में भी खुश और गतिशील रहना चाहिए।

8- पतंगा ------

       जिस तरह पतंगा आग की ओर आकर्षित होकर जल जाता है। उसी प्रकार रूप-रंग के आकर्षण और झूठे मोह में उलझना नहीं चाहिए।

9- हाथी ----- 

      हाथी हथिनी के संपर्क में आते ही उसके प्रति आसक्त हो जाता है। हाथी से सीखा जा सकता है कि संन्यासी और तपस्वी पुरुष को स्त्री से बहुत दूर रहना चाहिए।

10- आकाश ----- 

      दत्तात्रेय ने आकाश से सीखा कि हर देश, काल, परिस्थिति में लगाव से दूर रहना चाहिए।

11- जल ----- 

दत्तात्रेय ने जल से सीखा कि हमें सदैव पवित्र रहना चाहिए।

12- छत्ते से शहद निकालने वाला -----

      मधुमक्खियां शहद इकट्ठा करती है और एक दिन छत्ते से शहद निकालने वाला सारा शहद ले जाता है। इस बात से ये सीखा जा सकता है कि आवश्यकता से अधिक चीजों को एकत्र करके नहीं रखना चाहिए।


परम भक्त वत्सल दत्तात्रेय भक्त के स्मरण करते ही उसके पास पहुंच जाते हैं। इसीलिए इन्हें स्मृतिगामी तथा स्मृतिमात्रानुगन्ता भी कहा गया है। ये विद्या के परम आचार्य हैं। भगवान दत्तजी के नाम पर दत्त संप्रदाय दक्षिण भारत में विशेष प्रसिद्ध है।

इसके अलावा दत्तात्रेय स्त्रोत पाठ करें-
अस्य श्रीदत्तात्रेयस्तोत्रमन्त्रस्य भगवान् नारदऋषिः।
अनुष्टुप् छन्दः।श्रीदत्तपरमात्मा देवता।
श्रीदत्तप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ॥

जगदुत्पत्तिकर्त्रे च स्थितिसंहार हेतवे ।
भवपाशविमुक्ताय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

जराजन्मविनाशाय देहशुद्धिकराय च ।
दिगम्बरदयामूर्ते दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

कर्पूरकान्तिदेहाय ब्रह्ममूर्तिधराय च ।
वेदशास्त्रपरिज्ञाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

र्हस्वदीर्घकृशस्थूल-नामगोत्र-विवर्जित ।
पञ्चभूतैकदीप्ताय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

यज्ञभोक्ते च यज्ञाय यज्ञरूपधराय च ।
यज्ञप्रियाय सिद्धाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

आदौ ब्रह्मा मध्य विष्णुरन्ते देवः सदाशिवः ।
मूर्तित्रयस्वरूपाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

भोगालयाय भोगाय योगयोग्याय धारिणे ।
जितेन्द्रियजितज्ञाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

दिगम्बराय दिव्याय दिव्यरूपध्राय च ।
सदोदितपरब्रह्म दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

जम्बुद्वीपमहाक्षेत्रमातापुरनिवासिने ।
जयमानसतां देव दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

भिक्षाटनं गृहे ग्रामे पात्रं हेममयं करे ।
नानास्वादमयी भिक्षा दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

ब्रह्मज्ञानमयी मुद्रा वस्त्रे चाकाशभूतले ।
प्रज्ञानघनबोधाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

अवधूतसदानन्दपरब्रह्मस्वरूपिणे ।
विदेहदेहरूपाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

सत्यंरूपसदाचारसत्यधर्मपरायण ।
सत्याश्रयपरोक्षाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

शूलहस्तगदापाणे वनमालासुकन्धर ।
यज्ञसूत्रधरब्रह्मन् दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

क्षराक्षरस्वरूपाय परात्परतराय च ।
दत्तमुक्तिपरस्तोत्र दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

दत्त विद्याढ्यलक्ष्मीश दत्त स्वात्मस्वरूपिणे
गुणनिर्गुणरूपाय दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

शत्रुनाशकरं स्तोत्रं ज्ञानविज्ञानदायकम् ।
सर्वपापं शमं याति दत्तात्रेय नमोऽस्तुते ॥

इदं स्तोत्रं महद्दिव्यं दत्तप्रत्यक्षकारकम् ।
दत्तात्रेयप्रसादाच्च नारदेन प्रकीर्तितम् ॥

इति श्रीनारदपुराणे नारदविरचितं दत्तात्रेयस्तोत्रं सुसम्पूर्णम्

" दत्तात्रेय के नामजपद्वारा पूर्वजों के कष्टोंसे रक्षण कैसे होता है ?


विस्तार से विवेचन 


१. अतृप्त पूर्वजोंद्वारा होनेवाले कष्टों के कारण तथा उसपर उपाय

कलियुग में अधिकांश लोग साधना नहीं करते, अत: वे माया में फंसे रहते हैं । इसलिए मृत्यु के उपरांत ऐसे लोगों की लिंगदेह अतृप्त रहती है । ऐसी अतृप्त लिंगदेह मर्त्यलोक (मृत्युलोक) में फंस जाती है ।


अ. अतृप्त पूर्वजों से अपने रक्षणके लिए गुरुकृपा और कठोर साधना के अतिरिक्त अन्य पर्याय न होना |

‘कुछ मृत व्यक्तियों का अपने घरके सदस्यों – पत्नी, बच्चे तथा अन्यपर इतना प्रेम होता है कि उन्हें छोडकर मृत्यु के पश्चात आगेका प्रवास करना उन्हें कठिन लगता है । इस कारण जिस व्यक्तिमें लिंगदेह अटकी हुई है वह भी उसके साथ जाए, ऐसी उस लिंगदेहकी इच्छा होती है । जिस व्यक्तिमें यह लिंगदेह अटकी होती है, उस व्यक्तिके मनमें यह लिंगदेह आत्महत्या का विचार डालकर आत्महत्या करने को बाध्य करती है अथवा अपघात करवाना, रोग उत्पन्न करना, ऐसा कर उस व्यक्ति को मारकर अपने साथ ले जाती है । ऐसे हठी अतृप्त पूर्वजों से रक्षणके लिए गुरुकृपा और कठोर साधना के अतिरिक्त अन्य पर्याय नहीं ।

आ. अतृप्त पूर्वज घर के सदस्यों को कष्ट क्यों देते हैं ?

पूर्वज स्वयं अत्यंत कष्ट कर भूमि, घर, संपत्ति आदि अर्जित करते हैं । उनकी मृत्युके पश्चात उनकी वह संपत्ति उनके परिजनोंको मिलती है । परिजन यदि उस संपत्ति का विनियोग उचित ढंगसे न कर, अपव्यय करते हों, तो पूर्वजों को क्रोध आता है । परिणामस्वरूप वे अपने परिजनों को कष्ट देते हैं । कालांतरमें उनकी विपुल आर्थिक हानि होती है ।

उपाय : घरके सदस्यों को पूर्वजों द्वारा उपार्जित संपत्ति मिली हो, तो उसका सुयोग्य उपयोग करना चाहिए । उस संपत्ति का २० प्रतिशत भाग धर्मकार्य के लिए व्यय करना अथवा संतोंको दान करना चाहिए । इस दानसे पूर्वज और परिजनों को साधना का फल प्राप्त होकर पूर्वजों को सद्गति मिलती है तथा परिजनों का कष्ट दूर होता है ।

इ. पूर्वजों की आसक्ति भूमि तथा घरमें होना |

कुछ पूर्वजों की आसक्ति उनकी भूमि तथा घर इत्यादिमें इतनी तीव्र होती है कि वे आगे के लोकमें जानेके स्थानपर भुवलोकमें ही अटककर अपनी भूमि तथा घरमें रहते हैं । कुछ पूर्वजों की आसक्ति इतनी तीव्र होती है कि उनके परिजन यदि उस घरकी रचनामें कुछ परिवर्तन करें अथवा वह बेचें अथवा वहांपर नया घर बनाने के लिए उसे तोडें, तो वे क्रुद्ध होकर कष्ट देते हैं ।

उपाय : वास्तुशुद्धि और नामजप करने तथा घर के सर्व सदस्यों के साधना करनेपर उनकी और वास्तु की सात्त्विकता बढनेसे पूर्वज घरमें प्रवेश नहीं कर पाते और उनकेद्वारा होनेवाले कष्ट से घरके सदस्यों का रक्षण होता है । इस विषय में नामजप काैनसा करना चाहिए यह आगे दिया है ।

ई. अपने सभी पितरों को मोक्ष कैसे प्राप्त करवाएं, इसके लिए कोई पूजा होती है क्या?

आज के युग में हम अपने पूर्वजों की ३ पीढियों तक के पितरों की मुक्ति के लिए प्रयास कर सकते हैं । इस कारण हमारे यहां त्रिपिंडी श्राद्ध कहा गया है । माता के वंश की 3 (माता, मातामह, प्रमातामह) तथा पिता के वंश की 3 पीढियों (पिता, पितामह, प्रपितामह) को इससे मुक्ति मिलती है । हम यदि ३ पीढियों के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध करें, तो अन्य पितरों को भी उसका लाभ होता है । पूर्वजों की मुक्ति के लिए प्रयास करते समय यदि हम अपनी साधना कर जीवन्मुक्त होते हैं, तो पितृऋण से हम मुक्त हो जाते है और हमारी अगली पीढी का भी कल्याण होगा ।

२. दत्तात्रेय के नामजपद्वारा पूर्वजों के कष्टों से रक्षण कैसे होता है ?

अ. पूर्वजों को गति मिलना

ऊपरोल्लेखित शास्त्रानुसार कलियुग में अधिकांश लोग साधना नहीं करते, अत: वे माया में फंसे रहते हैं । इसलिए मृत्युके उपरांत ऐसे लोगों की लिंगदेह अतृप्त रहती है । मृत्युलोकमें फंसे पूर्वजों को दत्तात्रेयके नामजप से गति मिलती है; वे अपने कर्मानुसार आगे के लोक की ओर अग्रसर होते हैं । अतः स्वाभाविक ही उनसे संभावित कष्ट न्यून (कम) हो जाते हैं ।

आ. संरक्षक-कवच निर्मित होना

दत्तात्रेय के नामजप से निर्मित शक्तिद्वारा नामजप करनेवाले के आसपास संरक्षक-कवच निर्माण होता है ।

इ. दत्तात्रेय देवता का अनिष्ट शक्तियां बने पूर्वजों का नाश करना

मनुष्यको कष्ट देनेवाले पूर्वज अर्थात पूर्वज- अनिष्ट शक्तियोंके पापका घडा भर जानेपर दत्तात्रेय देवता उन्हें दंड देते हैं । पूर्वजदोष के (पितृदोष के) कष्टोंकी तीव्रताके अनुसार दत्तात्रेय देवता का नामजप करना वर्तमान काल में लगभग सभी को पूर्वजदोष का कष्ट है, इसलिए ‘श्री गुरुदेव दत्त ।’ नामजप प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन २ घंटे, मध्यम स्वरूप के कष्ट के लिए ४ घंटे और यदि तीव्र स्वरूप का कष्ट हो, तो ६ घंटे करें ।

ई. हिन्दू धर्म में ३३ करोड देवी-देवता हैं । फिर भगवान दत्तात्रेय का ही जाप क्यों करना चाहिए ?

प्रत्येक देवता का कार्य निश्‍चित है । माता लक्ष्मीजी का धन, मां सरस्वतीजी का विद्या, भगवान गणेशजी का बुद्धि से संबंधित प्रधान कार्य है । इसीप्रकार भगवान दत्तात्रेय का कार्य पितरों को मुक्ति देने से संबंधित है । भगवान दत्त का नामजप विशिष्ट रूप से पितरों के आध्यात्मिक कष्टों से संबंधित अर्थात पितृदोष निवारण का उपाय है ।

किसी को यदि सर्दी हुई हो, तो उसे विटामिन सी की अतिरिक्त मात्रा (खुराक) लेनी पडती है । यहां विटामिन सी, भगवान दत्तात्रेय का जप है । आज अधिकांश घरों में पितरों को गति न मिलने के कारण कुछ न कुछ बाधाएं दिखती हैं । लोग न तो श्राद्ध करने के लिए तैयार हैं और न ही धन खर्च करने की उनकी मानसिकता है, इसलिए पितरों को गति मिलने के लिए वे भगवान दत्तात्रेय का नामजप कर सकते हैं । इस जप से पितरों की भुवर्लोक के आगे की यात्रा सुगम होने में भी सहायता होती है ।

इसके अतिरिक्त आप आध्यात्मिक और व्यावहारिक प्रगति के लिए कुलदेवी का जप कर सकते हैं अथवा जिस इष्टदेवता का जाप आप बरसों से कर कुछ अनुभूति ले रहे हैं उनका जाप अथवा गुरुद्वारा दिए गए मंत्र का जाप कर सकते हैं ।

उ. हमें कैसे पता चलेगा कि पितरों का कष्ट दूर हो गया है । ‘श्री गुरुदेव दत्त’ का नामजप कितने दिन करना है ?

हमारे पूर्वज जो भुवर्लोक में अटके हुए हैं और अपनी-अपनी मुक्ति की प्रतिक्षा कर रहे हैं, वे हमें प्रत्यक्ष में नहीं बता सकते कि उनकी मुक्ति के लिए हमें साधना के प्रयास तथा श्राद्ध आदि विधि करने चाहिए । अत: वे हमें कष्ट देकर सूचित करते हैं । अर्थात यदि हमारी साधना से अथवा श्राद्ध आदि विधि से वे पितरलोक से मुक्त हो जाते हैं, तो हमारा आध्यात्मिक कष्ट दूर हो जाता है । हमें मानसिक शांति अनुभव होती है, घर की सामान्य रूप में कष्ट देनेवाली समस्याएं दूर हो जाती हैं, तब हमें प्रतीत होगा कि पितरों का कष्ट दूर हुआ है ।

‘श्री गुरुदेव दत्त’ का नामजप हमें पितरों का कष्ट दूर होने तक करना चाहिए । इसमें हमें ध्यान में लेना है कि स्वयं गंगाजी को पृथ्वी पर लानेवाले राजा भगीरथ की तीन पीढियों के प्रयासों के उपरांत उनके पूर्वजों को मुक्ति मिली थी । इसलिए हमें भी इसका महत्त्व ध्यान में रखकर नियमित प्रयास करने होंगे ।

३. पितृपक्ष में दत्तात्रेय देवताका नाम जपने का महत्त्व

पितृपक्ष में श्राद्ध विधि के साथ-साथ दत्तात्रेय देवता का नामजप करने से पूर्वजदोष का कष्टसे रक्षण होनेमें सहायता मिलती है । इसलिए पितृपक्ष में दत्तात्रेय देवता का नामजप न्यूनतम ६ घंटे करें ।

अ. पूर्वजों का कष्ट सभी को हो सकता है । फिर जिन्होंने गुरुमंत्र लिया है, उन्हें भी कुलदेवी

अथवा पूर्वजों के कष्टों से मुक्ति के लिए ‘श्री गुरुदेव दत्त ’, यह नामजप करना आवश्यक है क्या ?

यदि आपने गुरुमंत्र लिया है, तब भी कलियुग में आपको पूर्वजों के कष्टों से मुक्ति हेतु ‘श्री गुरुदेव दत्त’ यह जाप कर सकते हैं । गुरुमंत्र से हमारी आध्यात्मिक उन्नति होती है और ‘श्री गुरुदेव दत्त’ के जाप से पूर्वजों के कष्टों से निवारण होता है । दत्त भगवान के नामजप में पूर्वजों के कष्ट दूर करने की अधिक क्षमता है । यदि हम दत्त भगवान का जाप न करते हुए केवल गुरुमंत्र करेंगे, तो गुरुमंत्र की साधना से प्राप्त ऊर्जा पूर्वजों के कष्ट निवारण में व्यर्थ जा सकती है । इसी कारण दत्त भगवान का नामजप कुछ समय के लिए ही करना है और गुरुमंत्र दिनभर करना है ।

आ. गुरुमंत्र के साथ कुलदेवी का जाप करना चाहिए क्या ?

वास्तव में कुलदेवी की उपासना पूर्ण होने पर गुरु हमारे जीवन में आते हैं । यदि आपको गुरुमंत्र के साथ कुलदेवी का जाप करना आवश्यक और आनंददायी लगता हो, तो आप अवश्य करें । इससे कुलदेवी की कुछ उपासना शेष हो, तो वह पूर्ण होगी । यदि आपको गुरुमंत्र के जाप से ही प्रगति की अनुभूति हो रही है, तो कुलदेवी का जाप करने की आवश्यकता नहीं है । हम गुरुमंत्र के संदर्भ में कभी विस्तार से समझकर लेंगे ।

दत्तात्रेय मंत्र साधना

भगवान दत्तात्रेय मंत्र साधना  के लिए कुछ विशेष मंत्र बताये गए हैं। भगवान दत्तात्रेय  के गायत्री और तांत्रोत्क मंत्र का नियमित जाप पूरे विधि-विधान से करने से मानसिक विकास होता है, बुद्धि बढ़ती है, मन का भय दूर होता है, आत्मबल मिलता है, समस्याएं दूर होती है और मनोवांछित लक्ष्य तक पहुंचने की शक्ति हासिल होती है। दत्तात्रेय मंत्र  संकटनाशक और कामनापूर्तिकारक हैं।

गुरुवार और पूर्णिमा की शाम दत्तात्रेय मंत्र साधनाके लिए बहुत ही शुभ मानी गयी है। इसलिये इस दिन स्फटिक माला से जितने ज्यादा मंत्र जाप कर सकते है करना चाहिये। मंत्र जाप से पूर्व शुद्धता का विशेष ध्यान रखना चाहिए

दत्तात्रेय मंत्र साधना विधि

  • १ चौकी पर लाल रंग का कपडा बिछाकर उस पर भगवान् दत्तात्रेय मूर्ति स्थापित करे।
  • एक मिट्टी के घड़े के ऊपर एक सूखे नारियल को लाल चुनरी मे लपेट कर चारो तरफ आम के पते लगाकर रख दे।
  • तुलसी दल, बिल्वपत्र और गेंदे के फुल भगवान को अर्पित करे ।
  • मेवे का भोग लगा दे।
  • 5 अखंड दीपक जलाये जो साधना शुरु होने से लेकर पूरी रात तक जलते रहेंगे।
  • दत्तात्रेय मंत्र साधना  के लिए आपका आसान पीला या लाल रंग का होना चाहिए।
  • अपने आसान के पास एक बर्तन मे पानी से भरा बर्तन रखे।
  • बाएं हाथ में फूल और चावल के कुछ दाने लेकर विनियोग की प्रक्रिया निम्नलिखित मंत्र के साथ करे :
    ऊँ अस्य श्री दत्तात्रेय स्तोत्र मंत्रस्य भगवान नारद ऋषिः अनुष्टुप छंदः,
    श्री दत्त परमात्मा देवताः, श्री दत्त प्रीत्यर्थे जपे विनोयोगः!
  • फूल और चावल सिर झुकाकर भगवान् दत्तात्रेय की मूर्ति को अर्पित कर दे।
  •  दत्तात्रेय स्तोत्र का पाठ करे
  • अब दत्त मंत्र  का स्फटिक की माला से जाप करे

दत्तात्रेय मंत्र

दत्तात्रेय ध्यान मंत्र

जटाधाराम पाण्डुरंगं शूलहस्तं कृपानिधिम।
सर्व रोग हरं देव,दत्तात्रेयमहं भज॥

दत्तात्रेय गायत्री मंत्र

ll ॐ दिगंबराय विद्महे योगीश्रारय् धीमही तन्नो दत: प्रचोदयात ll

दत्त तांत्रोत्क मंत्र-

ll ॐ द्रां दत्तात्रेयाय नम: ll

उपरोक्त इन मंत्रों का जाप स्फटिक की माला से नित्य 108 बार करना चाहिए। 
 
* मानसिक रूप से जाप करने का मंत्र -  
 
मंत्र- ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां ॐ द्रां। 
इसके बाद नित्य ‍10 माला का जाप निम्न मंत्र से करना चाहिए। 
 
अत: अमावस्या, गुरुवार, पूर्णिमा अथवा दत्तात्रेय जयंती के दिन निम्न मंत्रों का उच्चारण करने से मनुष्य के जीवन के समस्त कष्ट जल्दी ही दूर हो जाते हैं।
श्रीदत्तात्रेय वज्र कवच
श्रीगणेशाय नम: । श्रीदत्तात्रेय नम: ।।
ऋषिय ऊचु:
कथं संकल्पसिद्धि: स्याद्वेदव्यास कलौ युगे ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां साधनं किमुदाहृतम् ।।1।।
अर्थ
ऋषियों ने पूछा – व्यासजी महाराज ! आप कृपाकर यह बतलाएँ कि कलियुग में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि किस प्रकार से होगी तथा क्लेश, मुक्ति और अन्य सत्संकल्प आदि कार्य कैसे सिद्ध होंगे.
व्यास उवाच

श्र्ण्वन्तु ऋषय: सर्वे शीघ्रं संकल्पसाधनम् ।
सकृदुच्चारमात्रेण भोगमोक्षप्रदायकम् ।।2।।

अर्थ

भगवान व्यास बोले – ऋषिगण ! आप सभी लोग सुनें. मैं विधिपूर्वक एक बार के पाठमात्र से भोग और मोक्ष आदि सभी को तत्काल सिद्ध करने वाला एक स्तोत्र बतलाता हूँ.

गौरीश्रृंगे हिमवत: कल्पवृक्षोपशोभितम् ।
दीप्ते दिव्यमहारत्नहेममण्डपमध्यगम् ।।
रत्नसिंहासनासीनं प्रसन्नं परमेश्वरम् ।
मंदस्मितमुखाम्भोजं शंकरं प्राह पार्वती ।।

अर्थ

हिमालय पर्वत के ऊपर एक गौरीशिखर नाम का दिव्य श्रृंग है, वह अनेक कल्पवृक्षों से सुशोभित रहता है, साथ ही महान रत्नों से सदा उद्भाषित होता रहता है. वहीं भगवान शिव और पार्वती के निवास के लिए एक सुवर्णमय मण्डप बना हुआ है. वहीं रत्नसिंहासन पर प्रसन्न मन से बैठे हुए मन्दस्मित मुखकमल भगवान शंकर से भगवती पार्वती ने आदरपूर्वक इस प्रकार पूछा.

श्रीदेव्युवाच
देवदेव महादेव लोकशंकर शंकर ।

मन्त्रजालानि सर्वाणि यन्त्रजालानि कृत्स्नश: ।।5।।
तन्त्रजालान्यनेकानि मया त्वत्त: श्रुतानि वै ।
इदानीं द्रष्टुमिच्छामि विशेषेण महीतलम् ।।6।।
अर्थ
देवी पार्वती बोली – हे देवाधिदेव महादेव ! समस्त लोकों के कल्याण करने वाले भगवान शंकर ! आपसे मैंने अनेक प्रकार के मंत्र, यंत्र और तंत्र समुदायों को भली-भाँति सुना, अब मेरी इस भूमण्डल पर विचरण करने और उनके दृश्यों को देखने की विशेष इच्छा हो रही है.

इत्युदीरितमाकर्ण्य पार्वत्या परमेश्वर: ।
करेणामृज्य संतोषात्पार्वतीं प्रत्यभाषत ।।7।।
मयेदानीं त्वया सार्धं वृषमारुह्य गम्यते ।
इत्युक्त्वा वृषमारुह्य पार्वत्या सह शंकर: ।।8।।
ययौ भूमण्डलं द्रष्टुं गौर्याश्चित्राणि दर्शयन् ।
अर्थ
पार्वती जी के इस कथन को सुनकर भगवान शंकर ने उनके हाथ को प्रसन्नतापूर्वक स्पर्श कर इस प्रस्ताव का अनुमोदन करते हुए कहा कि ठीक है “मैं ऎसा ही करता हूँ”. मैं तुम्हारे साथ अपने वृषभ वाहन पर बैठकर भूमण्डल के दृश्यों के अवलोकन के लिए चल रहा हूँ. ऎसा कहकर भगवान शंखर पार्वती जी के साथ अपने वृषभ वाहन पर बैठकर उन्हें विभिन्न क्षेत्रों की शोभा दिखाते हुए भूमण्डल के दृश्यों को देखने निकल पड़े.
क्वचिद् विन्ध्याचलप्रान्ते महारण्ये सुदुर्गमे ।।9।।
तत्र व्याहन्तुमायान्तं भिल्लं परशुधारिणम् ।
वध्यमानं महाव्याघ्रं नखदंष्ट्राभिरावृतम् ।।10।।
अतीव चित्रचारित्र्यं वज्रकायसमायुतम् ।
अप्रयत्नमनायासमखिन्नं सुखमास्थितम् ।।11।।
अर्थ
घूमते-घूमते वे लोग विन्ध्याचल पर्वत के अत्यन्त दुर्गम वन के एक भाग में पहुँचे. वहाँ उन्होंने फरसा लिए हुए एक भिल्ल को देखा, जो शिकार के लिए उस वन में घूम रहा था. उसका शरीर वज्र के समान कठोर था, वह विशाल नख एवं दाढ़ वाले एक बाघ को मारने में प्रवृत था. उसका चरित्र अत्यन्त विचित्र था और उसके शरीर में लेशमात्र भी श्रम एवं कान्ति के लक्षण नहीं दीख रहे थे तथा आनन्दपूर्वक निश्चिन्त खड़ा था.
पलायन्तं मृगं पश्चाद् व्याघ्रो भीत्या पलायित: 
एतदाश्चर्यमालोक्य पार्वती प्राह शंकरम् ।।12।।
अर्थ
बाघ मृग को देखकर डरकर भागने लगा और उसके पीछे-पीछे हिरन भी खदेड़ता हुआ जा रहा था. इस आश्चर्य को देखकर भगवती पार्वती ने भगवान शंकर से कहा.
श्रीपार्वत्युवाच
किमाश्चर्यं किमाश्चर्यमग्रे शम्भो निरीक्ष्यताम् ।
इत्युक्त: स तत: शम्भुर्दृष्ट्वा प्राह पुराणवित् ।।13।।
अर्थ
पार्वती जी बोली – “प्रभो ! यह सामने देखिए कितने बड़े आश्चर्य की बात है”. यह सुनकर सभी रहस्यों के मर्मज्ञ भगवान शंकर ने उधर देखा और फिर वे कहने लगे.
श्रीशंकर उवाच
गौरि वक्ष्यामि ते चित्रमवाड़्मनसगोचरम् ।
अदृष्टपूर्वमस्माभिर्नास्ति किंचिन्न कुत्रचित् ।।14।।
मया सम्यक् समासेन वक्ष्यते श्रृणु पार्वति ।
अर्थ

भगवान शंकर बोले – हे पार्वति ! इस विचित्र घटना का रहस्य जो मेरी समझ में आया है, वह मैं तुमसे बतला रहा हूँ. वैसे तो हम लोगों के लिए कहीं भी कोई वस्तु नयी नहीं है, सब कुछ देखा-सुना हुआ है. फिर भी मैं संक्षेप में बतला रहा हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो.

अयं दूरश्रवा नाम भिल्ल: परमधार्मिक: ।।15।।
समित्कुशप्रसूनानि कन्दमूलफलादिकम् ।
प्रत्यहं विपिनं गत्वा समादाय प्रयासत: ।।16।।

प्रिये पूर्वं मुनीन्द्रेभ्य: प्रयच्छति न वाण्छति ।
तेsपि तस्मिन्नपि दयां कुर्वते सर्वमौनिन: ।।17।।

अर्थ
यह दूरश्रवा नाम का अत्यन्त धर्मात्मा भिल्ल है. प्रिये ! यह प्रतिदिन प्रयत्नपूर्वक वन से समिधा, पुष्प, कुश, कन्द-मूल-फल आदि लेकर बिना कुछ पारिश्रमिक प्राप्त किये ही मुनियों के आश्रमों पर पहुँचा देता है. वह उनसे कुछ भी लेने की इच्छा भी नहीं करता, पर मुनि लोग उस पर बहुत कृपा करते हैं.

दलादनो महायोगी वसन्नेव निजाश्रमे ।
कदाचिदस्मरत् सिद्धं दत्तात्रेयं दिगन्बरम् ।।18।।

दत्तात्रेय: स्मर्तृगामी चेतिहासं परीक्षितुम् ।
तत्क्षणात्सोsपि योगीन्द्रो दत्तात्रेय: समुत्थित: ।
अर्थ
यहीं दलादन (पत्तों के आहार पर जीवन धारण करने वाले पर्णाद) मुनि भी अपने आश्रम में निवास करते हैं. एक बार उन्होंने दत्तात्रेय मुनि की स्मर्तृगामिता (जो स्मरण करते ही पहुँच जाए उसे स्मर्तृगामी कहते हैं) की परीक्षा के लिए उनका स्मरण किया. फिर क्या था, महर्षि दत्तात्रेय तत्क्षण वहीं प्रकट हो गए.
तं दृष्ट्वाssश्चर्यतोषाभ्यां दलादनमहामुनि: ।
सम्पूज्याग्रे निषीदन्तं दत्तात्रेयमुवाच तम् ।।20।।
मयोपहूत: सम्प्राप्तो दत्तात्रेय महामुने ।
स्मर्तृगामी त्वमित्येतत् किंवदन्तीं परीक्षितुम् ।।21।।
अर्थ
उन्हें उपस्थित देखकर दलादन मुनि को महान आश्चर्य और अपार हर्ष हुआ. उन्होंने बड़ी आवभगतपूर्वक आसन पर बैठाकर उनका स्वागत-सत्कार एवं पूजन कर उनसे कहा – “महामुने दत्तात्रेय ! मैंने तो केवल आपकी स्मर्तृगामिता की प्रसिद्धि की दृष्टि से सामान्य रूप से ही आपको स्मरण किया था.
मयाद्य संस्मृतोsसि त्वमपराधं क्षमस्व मे ।
दत्तात्रेयो मुनिं प्राह मम प्रकृतिरीदृशी ।।22।।
अभक्त्या वा सुभक्त्या वा य: स्मरेन्मामनन्यधी: ।
तदानीं तमुपागत्य ददामि तद्भीप्सितम् ।।23।।
दत्तात्रेयो मुनिं प्राह दलादनमुनीश्वरम् ।
यदिष्टं तद्वृणीष्व त्वं यत् प्राप्तोsहं त्वया स्मृत: ।।24।।
अर्थ
“आज जो मैंने आपको स्मरण किया और आप तत्काल यहाँ पधार गए, यह मैंने बड़ा भारी अपराध किया, आप मेरे इस अपराध को क्षमा करें”. इस पर दत्तात्रेय जी ने दलादन मुनि से कहा कि “मेरा तो यह स्वभाव ही है कि कोई मुझे भाव-कुभाव, भक्ति या अभक्ति से तल्लीनतापूर्वक स्मरण करे तो मैं तत्क्षण उसके पास पहुँच जाता हूँ और उसकी अभीष्ट वस्तु उसे प्रदान कर देता हूँ”. पुन: दत्तात्रेय जी ने कहा – “अत: जब आपने मुझे स्मरण किया है और मैं आ गया हूँ तो अब जो चाहो मुझसे माँग लो, मैं तुम्हें वह वस्तु प्रदान कर दूँगा.

श्रीदत्तात्रेय उवाच
ममास्ति वज्रकवचं गृहाणेत्यवदन्मुनिम् ।
तथेत्यंगीकृतवते दलादनमुनये मुनि: ।।26।।
स्ववज्रकवचं प्राह ऋषिच्छन्द: पुर:सरम् ।
न्यासं ध्यानं फलं तत्र प्रयोजनमशेषत: ।।27।।
अर्थ
दत्तात्रेय जी बोले – तब तुम मेरा यह वज्रकवच ही ग्रहण कर लो. इस पर दलादन मुनि के “ऎसा ही हो” यह कहने पर उन्होंने अपने वज्रकवच का उपदेश कर दिया और साथ ही साथ इसके ऋषि, छन्द, न्यास, ध्यान, फल और प्रयोजन का भी उपदेश कर दिया.
विनियोग इस प्रकार है –
अस्य श्रीदत्तात्रेयवज्रकवचस्तोत्रमन्त्रस्य किरातरूपी महारुद्र ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द:, श्रीदत्तात्रेयो देवता, द्रां बीजम्, आं शक्ति:, क्रौं कीलकम्, ऊँ आत्मने नम: । ऊँ द्रीं मनसे नम: । ऊँ आं द्रीं श्रीं सौ: ऊँ क्लां क्लूं क्लैं क्लौं क्ल: । श्रीदत्तात्रेयप्रसादसिद्द्ध्यर्थे जपे विनियोग: ।।
करन्यास – ऊँ द्रां अंगुष्ठाभ्यां नम: । ऊँ द्रीं तर्जनीभ्यां नम: । ऊँ द्रूं मध्यमाभ्यां नम: । ऊँ द्रैं अनामिकाभ्यां नम: । ऊँ द्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नम: । ऊँ द्र: करतलकरपृष्ठाभ्यां नम: ।
हृदयादिन्यास भी इसी प्रकार से कर लेना चाहिए।
“ऊँ भूर्भूव: स्वरोम्” ऎसा कहकर – चुटकी बजाते हुए भूत-प्रेतों से अपने स्थान तथा शरीर की रक्षा के लिए – दिग्बन्ध करना चाहिए.
अथ ध्यानम्
जगदंकुरकन्दाय सच्चिदानन्दमूर्तये ।
दत्तात्रेयाय योगीन्द्रचन्द्राय परमात्मने ।।1।।
अर्थ
उनका ध्यान इस प्रकार है – संसार – वृक्ष के मूलस्वरूप, सच्चिदानन्द की मूर्त्ति और योगीन्द्रों के लिये आह्लादकारी चन्द्रमा एवं परमात्मस्वरुप दत्तात्रेय मुनि को नमस्कार है.
कदा योगी कदा भोगी कदा नग्न: पिशाचवत् 
दत्तात्रेयो हरि: साक्षाद्भुक्तिमुक्तिप्रदायक: ।।2।।
अर्थ
कभी योगी वेश में, कभी भोगी वेश में और कभी नग्न दिगम्बर के वेश में पिशाच के समान इधर-उधर घूमते महामुनि दत्तात्रेय भोग एवं मोक्ष को देने में समर्थ साक्षात विष्णु ही हैं.
वाराणसीपुरस्नायी कोल्हापुरजपादर: ।
माहुरीपुरभिक्षाशी सह्यशायी दिगम्बर: ।।3।।
अर्थ
ये महामुनि प्रतिदिन प्रात: काशी में गंगा नदी में स्नान करते हैं और फिर समुद्रतटवर्ती कोल्हापुर के महालक्ष्मी मन्दिर पहुँचकर देवी का जप-ध्यान करते हैं तथा माहुरीपुर (वर्तमान नाम माहुरगढ़ है. यहाँ दत्तात्रेय जी की मन्दिर आदि कई चिह्न हैं) पहुँचकर कुछ भिक्षा करते हैं और फिर सह्याचल की कन्दराओं में दिगम्बर-वेश में विश्राम एवं शयन करते हैं.
इन्द्रनीलसमाकारश्चन्द्रकान्तसमद्युति: ।
वैदूर्यसदृशस्फूर्तिश्चलत्किंचिज्जटाधर: ।।4।।
अर्थ
देखने में इन्द्रनीलमणि के समान भस्म पोते हुए उनका शरीर पूरा नीला है और उनकी चमक चन्द्रकान्तमणि के समान श्वेतवर्ण की है. इनकी फहराती हुई काली-नीली जटा कुछ-कुछ वैदूर्यमणि के समान दिखती है.

 स्निग्धधावल्ययुक्ताक्षोsत्यन्तनीलकनीनिक: 
भ्रूवक्ष:श्मश्रुनीलांक: शशांकसदृशानन: ।।5।।
अर्थ
इनकी आँखें स्नेह से भरी हुई श्वेत वर्ण की हैं. इनकी आँखों की पुतलियाँ बिलकुल नीली हैं. इनका मुखमण्डल चन्द्रमा के समान और इनकी भौंहें तथा छाती तक लटकी दाढ़ी नीली है.
हासनिर्जितनीहार: कण्ठनिर्जितकम्बुक: ।
मांसलांसो दीर्घबाहु: पाणिनिर्जितपल्लव: ।।6।।
अर्थ
इनकी हास्यछटा नीहार की हिम-बिन्दुओं को तिरस्कृत करती है और कण्ठ की शोभा शंख को लज्जित करती हैं. सारा शरीर मांस से भरा कुछ उभरा-सा है तथा इनकी भुजाएँ लम्बी हैं और करकमल नवीन पत्तों से भी अधिक कोमल हैं.
विशालपीनवक्षाश्च ताम्रपाणिर्दलोदर: ।
पृथुलश्रोणिललितो विशालजघनस्थ: ।।7।।
अर्थ
इनकी छाती चौड़ी और मांसल हैं तथा करतल पूरा लाल है. इनका कटिप्रदेश मांसल एवं ललित है तथा जघनस्थल विशाल है.
रम्भास्तम्भोपमानोरूर्जानुपूर्वैकजंघक: ।
गूढ़गुल्फ: कूर्मपृष्ठो लसत्पादोपरिस्थल: ।।8।।
अर्थ
इनकी जाँघें केले के स्तम्भ के समान घुटने तक उतरती हुई हैं तथा उनकी घुट्टियाँ मांस से ढकी हुई हैं और पैर का ऊपरी भाग कछुए की पीठ के समान ऊपर उठा हुआ है.
रक्तारविन्दसदृशरमणीयपदाधर: 
चर्माम्बरधरो योगी स्मर्तृगामी क्षणे क्षणे ।।9।।
अर्थ
इनका पदतल रक्तकमल के समान अत्यन्त मृदुल और रमणीय है. वे ऊपर से अपने शरीर पर मृग चर्म धारण किए रहते हैं और जो भी भक्त इन्हें जब-जब जहाँ-जहाँ पुकारते हैं, वे अपने योगबल से तब-तब वहाँ पहुँचते हैं.
ज्ञानोपदेशनिरतो विपद्धरणदीक्षित: ।
सिद्धासनसमासीन ऋजुकायो हसन्मुख: ।।10।।
अर्थ
वे ज्ञान के उपदेश में निरन्तर निरत रहते हैं और दूसरों को क्लेश से मुक्त करने के लिए सदा बद्धपरिकर रहते हैं. वे प्राय: सीधे शरीर से सिद्धासन लगाकर बैठे रहते हैं और उनके मुख पर मुसकान सदा विराजमान रहती है.
वामहस्तेन वरदो दक्षिणेनाभयंकर: ।
बालोन्मत्तपिशाचीभि: क्वचिद्युक्त: परीक्षित: ।।11।।
अर्थ
उनके बाएँ हाथ से वरद मुद्रा और दाहिने हाथ से अभय मुद्रा प्रदर्शित होती है. वे कभी-कभी बालकों, उन्मत्त व्यक्तियों और पिशाचिनियों से घिरे हुए दिखते हैं.  

त्यागी भोगी महायोगी नित्यानन्दो निरंजन: ।
सर्वरूपी सर्वदाता सर्वग: सर्वकामद: ।।12।।
अर्थ
वे एक ही साथ त्यागी, भोगी, महायोगी और मायामुक्त नित्य आनन्दस्वरूप विशुद्ध ज्ञानी हैं. वे एक ही साथ सब रूप धारण कर सकते हैं, सब जगह जा सकते हैं और सभी को सभी अभिलषित पदार्थ प्रदान करने में भी समर्थ हैं.
भस्मोद्धूलितसर्वांगो महापातकनाशन: ।
भुक्तिप्रदो मुक्तिदाता जीवन्मुक्तो न संशय: ।।13।।
अर्थ
महर्षि दत्तात्रेय अपने शरीर में भस्म लपेटे रहते हैं. इनके दर्शन या स्मरण से सब पापों का नाश हो जाता है. ये भोग एवं मोक्ष सब कुछ देने में समर्थ हैं और इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि ये पूर्ण जीवन्मुक्त हैं.
एवं ध्यात्वाsनन्यचित्तो मद्वज्रकवचं पठेत् ।

मामेव पश्यन्सर्वत्र स मया सह संचरेत् ।।14।।

अर्थ

महर्षि दत्तात्रेय दलादन जी से कहते हैं – जो इस प्रकार अनन्य भाव से सब जगह मुझे देखते और मेरा ध्यान करते हुए मेरे इस वज्र कवच का पाठ करेगा, वह जीवन्मुक्त होकर सदा मेरे साथ विचरण करेगा.

 

दिगम्बरं भस्मसुगन्धलेपनं चक्रं त्रिशूलं डमरुं गदायुधम् ।

पद्मासनं योगिमुनीन्द्रवन्दितं दत्तेति नामस्मरणेन नित्यम् ।।15।।

अर्थ

जो निर्वस्त्र, भस्म लपेटे, सुगन्धित द्रव्यों से उपलिप्त, चक्र, त्रिशूल, डमरू और गदा – इन आयुधों को क्रमश: अपने चार हाथों में धारण किये हैं, पद्मासन लगाकर बैठे हैं और योगी तथा श्रेष्ठ मुनिगण जिनकी वन्दना-प्रार्थना कर रहे हैं ऎसे दत्तमुनि नित्य नाम-जप में तल्लीन रहते हैं (ऎसे स्वरूप वाले दत्तात्रेय मुनि का मैं ध्यान कर रहा हूँ)

 

अथ पंचोपचारै: सम्पूज्य, “ऊँ द्रां” इति अष्टोत्तरशतं जपेत्

अर्थ – इसके बाद चन्दन, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य – इन पाँच उपचारों से पूजा करके दत्तात्रेय जी का मूलबीज – मंत्र “ऊँ द्रां” का 108 बार जप करें.

 

तदनन्तर कवच का इस प्रकार पाठ करना चाहिए –

ऊँ दत्तात्रेय: शिर: पातु सहस्त्राब्जेषु संस्थित: ।

भालं पात्वानसूयेयश्चन्द्रमण्डलमध्यग: ।।1।।

अर्थ

सहस्त्रदल कमल (शून्य चक्र) में स्थित दत्तात्रेय जी मेरे मस्तक की रक्षा करें. चन्द्रमण्डल में स्थित रहने वाले अनसूया के पुत्र भगवान दत्तात्रेय मेरे ललाट की रक्षा करें.

 

कूर्चं मनोमय: पातु हं क्षं द्विदलपद्मभू: ।

ज्योतीरूपोsक्षिणी पातु पातु शब्दात्मक: श्रुती ।।2।।

अर्थ

द्विदल पद्म (आज्ञा चक्र) में स्थित मनस्वरूपी भगवान दत्तात्रेय कूर्च, मेरी नासिका के ऊपरी भाग की रक्षा करें. ज्योतिस्वरूप भगवान दत्तात्रेय मेरे नेत्रों की तथा शब्दात्मक दत्त मेरे दोनों कानों की रक्षा करें.

 

नासिकां पातु गन्धात्मा मुखं पातु रसात्मक: ।

जिह्वां वेदात्मक: पातु दन्तोष्ठौ पातु धार्मिक: ।।3।।।

अर्थ

गन्धात्मक दत्त मेरी नासिका की तथा रसरूपी भगवान दत्त मेरे मुख की रक्षा करें. वेदज्ञानस्वरूपी दत्त मेरी जिह्वा की तथा धर्मात्मा दत्त मेरे ओष्ठ और दाँतों की रक्षा करें.

 

कपोलावत्रिभू: पातु पात्वशेषं ममात्मवित् ।

स्वरात्मा षोडशाराब्जस्थित: स्वात्माsवताद्गलम् ।।4।।

अर्थ

अत्रिपुत्र दत्त मेरे कपोलों की तथा आत्मवेत्ता दत्तात्रेय जी मेरे समूचे शरीर की रक्षा करें. स्वरस्वरूप षोडशदल कमल (विशुद्धिचक्र) में स्थित निजात्मस्वरूप भगवान दत्तात्रेय जी मेरे गले की रक्षा करें.

 

स्कन्धौ चन्द्रानुज: पातु भुजौ पातु कृतादिभू: ।

जत्रुणी शत्रुजित् पातु पातु वक्ष:स्थलं हरि: ।।5।।

अर्थ

चन्द्रमा मुनि के छोटे भाई दत्तात्रेय जी मेरे दोनों कन्धों की तथा सतयुग के आदि में उत्पन्न होने वाले भगवान दत्तात्रेय मेरी दोनों भुजाओं की रक्षा करें. शत्रुओं के विजेता भगवान दत्त मेरी पसलियों की तथा साक्षात विष्णुस्वरूप दत्तात्रेय जी मेरे वक्ष:स्थल की रक्षा करें.

 

कादिठान्तद्वादशारपद्मगो मरुदात्मक: ।

योगीश्वरेश्वर: पातु हृदयं हृदयस्थित: ।।6।।

अर्थ

कसे ठतक द्वादशदल कमल (अनाहत चक्र) में स्थित योगीश्वरों के भी ईश्वर तथा हृदयस्थ वायुरूपी भगवान दत्तात्रेय मेरे हृदय की रक्षा करें.

 

पार्श्वे हरि: पार्श्ववर्ती पातु पार्श्वस्थित: स्मृत: ।

हठयोगादियोगज्ञ: कुक्षी पातु कृपानिधि: ।।7।।

अर्थ

स्मर्तृगामी पास में रहने वाले साक्षात भगवान दत्तात्रेय मेरे पार्श्व भागों की तथा हठयोग आदि सभी योग-विद्याओं के ज्ञाता कृपासिन्धु दत्तात्रेय जी मेरी कुक्षि (पेट) की रक्षा करें

  

डकारादिफकारान्तदशारससीरुहे ।

नाभिस्थले वर्तमानो नाभिं वह्न्यात्मकोsवतु ।।8।।

वह्नितत्त्वमयो योगी रक्षतान्मणिपूरकम् ।

कटिं कटिस्थब्रह्माण्डवासुदेवात्मकोsवतु ।।9।।

अर्थ

डकार से लेकर फकार तक दसदल कमलयुक्त, अग्नितत्त्वमय नाभिस्थल मणिपूरचक्र में स्थित अग्निस्वरूप योगी भगवान दत्तात्रेय मणिपूरचक्र सहित मेरी नाभि की रक्षा करें. जिनके कटिप्रदेश में समस्त ब्रह्माण्ड स्थित हैं, वे वासुदेवस्वरूप भगवान दत्तात्रेय मेरे कटिप्रदेश की रक्षा करें.

 

बकारादिलकारान्तषट्पत्राम्बुजबोधक: ।

जलतत्वमयो योगी स्वाधिष्ठानं ममावतु ।।10।।

अर्थ

बकार से लेकर लकार तक षडदल कमल में स्थित जलतत्वरूपी योगी भगवान दत्तात्रेय जी मेरे स्वाधिष्ठान चक्र की रक्षा करें.

 

सिद्धासनसमासीन ऊरू सिद्धेश्वरोsवतु ।

वादिसान्तचतुष्पत्रसरोरुहनिबोधक: ।।11।।

मूलाधारं महीरूपो रक्षताद्वीर्यनिग्रही ।

पृष्ठं च सर्वत: पातु जानुन्यस्तकराम्बुज: ।

अर्थ

सिद्धासन लगाकर बैठे हुए सिद्धों के स्वामी भगवान दत्तात्रेय जी मेरी दोनों जाँघों की रक्षा करें. “व” कार से लेकर “स” कार तक चतुर्दल कमल में स्थित महीरूप अखण्ड नैष्ठिक ब्रह्मचारी भगवान दत्तात्रेय मेरे मूलाधाार चक्र की रक्षा करें. घुटने पर हस्तकमल को रखकर बैठे हुए भगवान दत्तात्रेय मेरी पीठ की सभी ओर से रक्षा करें.

 

जंघे पात्ववधूतेन्द्र: पात्वंघ्री तीर्थपावन: ।

सर्वांग पातु सर्वात्मा रोमाण्यवतु केशव: ।।।13।।

अर्थ

अवधूतों के स्वामी भगवान दत्तात्रेय मेरे पैर की दोनों पिण्डलियों तथा अपने पैरों से सम्पूर्ण तीर्थों को पवित्र करने वाले भगवान दत्तात्रेय मेरे पदतलों की रक्षा करें. सर्वात्मा भगवान दतात्रेय मेरे सभी अंगों की तथा विचित्र केशों वाले भगवान दत्तात्रेय मेरे रोम समूहों की रक्षा करें.

 

चर्म चर्माम्बर: पातु रक्तं भक्तिप्रियोsवतु ।

मांसं मांसकर: पातु मज्जां मज्जात्मकोsवतु ।।14।।

अर्थ

मृगचर्म धारण करने वाले भगवान दत्तात्रेय मेरी त्वचा की तथा भक्तिप्रिय भगवान दत्तात्रेय मेरे शरीर के रक्त की रक्षा करें. मांस बढ़ाने वाले दत्तात्रेय मेरी मांसस्थली की तथा मज्जात्मा भगवान दत्तात्रेय मेरी मज्जा धातु की रक्षा करें.

 

अस्थीनि स्थिरधी: पायान्मेधां वेधा: प्रपालयेत् ।

शुक्रं सुखकर: पातु चित्तं पातु दृढाकृति: ।।15।।

अर्थ

स्थिर बुद्धिवाले भगवान दत्तात्रेय मेरी हड्डियों की तथा ब्रह्मस्वरुप दत्तात्रेय जी मेरी मेधा (धारणाशक्ति) की रक्षा करें. सुख देने वाले भगवान दत्तात्रेय मेरे शुक्र (तेज) की और दृढ़ वज्र शरीर वाले दत्तात्रेय जी मेरे चित्त की रक्षा करें.

 

मनोबुद्धिमहंकारं हृषीकेशात्मकोsवतु ।

कर्मेन्द्रियाणि पात्वीश: पातु ज्ञानेन्द्रियाण्यज: ।।16।।

अर्थ

इन्द्रियों के स्वामीरूप भगवान दत्तात्रेय मेरे मन, बुद्धि और अहंकार की रक्षा करें. ईश्वरस्वरूप भगवान दत्तात्रेय मेरी कर्मेन्द्रियों की और अजन्मा भगवान दत्त मेरी ज्ञानेन्द्रियों की रक्षा करें.

 

बन्धून् बन्धुत्तम: पायाच्छत्रुभ्य: पातु शत्रुजित् ।

गृहारामधनक्षेत्रपुत्रादीण्छंकरोsवतु ।।17।।

अर्थ

बन्धुओं में उत्तम भगवान दत्त मेरे बन्धु-बान्धवों की और शत्रु विजेता भगवान दत्तात्रेय मेरी शत्रुओं से रक्षा करें. शंकरस्वरूप भगवान दत्तात्रेय हमारे घर, खेत तथा बाग-बगीचे, धन-सम्पत्तियों और मेरे पुत्र आदि की रक्षा करें.

 

भार्यां प्रकृतिवित् पातु पश्वादीन्पातु शार्ड्ग्भृत् ।

प्राणान्पातु प्रधानज्ञो भक्ष्यादीन्पातु भास्कर: ।।18।।

अर्थ

प्रकृति तत्व के मर्मज्ञ भगवान दत्तात्रेय मेरी पत्नी की और शार्ड्ग्धनुष धारण करने वाले विष्णुस्वरूप भगवान दत्तात्रेय मेरे पशु आदि की रक्षा करें. प्रधान तत्त्व के रहस्यवेत्ता भगवान दत्तात्रेय मेरे प्राणों की और सूर्यस्वरूपी भगवान दत्तात्रेय मेरे भक्ष्य-भोज्य आदि पदार्थों की कुदृष्टि एवं विष आदि से रक्षा करें.

 

सुखं चन्द्रात्मक: पातु दु:खात् पातु पुरान्तक: ।

पशून्पशुपति: पातु भूतिं भूतेश्वरी मम ।।19।।

अर्थ

चन्द्ररूपी भगवान दत्त मेरे सुखों की रक्षा करें तथा त्रिपुर दैत्य को मारने वाले शिवस्वरूपी दत्तात्रेय जी मुझे सभी क्लेशों से बचायें. पशुपतिनाथरूपी दत्तात्रेय जी मेरे पशुओं की और भूतेश्वररूपी दत्त मेरे वैभवों – योगसिद्धियों की रक्षा करें.

 

प्राच्यां विषहर: पातु पात्वाग्नेय्यां मखात्मक:

याम्यां धर्मात्मक: पातु नैऋत्यां सर्ववैरिहृत ।।20।।

अर्थ

विष को दूर करने वाले दत्त जी पूर्व दिशा में और यज्ञस्वरूपी भगवान दत्तात्रेय अग्निकोण में रक्षा करें. धर्मराजरूपी दत्त दक्षिण दिशा में और सभी वैरियों को नष्ट करने वाले भगवान दत्तात्रेय नैऋत्यकोण में मेरी रक्षा करें.

 

वराह: पातु वारुण्यां वायव्यां प्राणदोsवतु ।

कौबेर्यां धनद: पातु पात्वैशान्यां महागुरु: ।।21।।

अर्थ

भगवान वराहरूपी दत्त पश्चिम दिशा में और सबों को नासिका-मार्ग से वायुद्वारा प्राण-संचार करने वाले भगवान दत्त वायु कोण में रक्षा करें. उत्तर दिशा में धनाध्यक्ष कुबेररूपी और ईशान कोण में विश्व के महागुरु शिवस्वरुप भगवान दत्तात्रेय जी रक्षा करें.

 

ऊर्ध्वं पातु महासिद्ध: पात्वधस्ताज्जटाधर: ।

रक्षाहीनं तु यत्स्थानं रक्षत्वादिमुनीश्वर: ।।22।।

अर्थ

महासिद्धरूपी दत्तात्रेय जी ऊपर की ओर और जटाधारी भगवान दत्तात्रेय जी मेरी नीचे की दिशा में रक्षा करें. जो रक्षा के लिए स्थान निर्दिष्ट नहीं किए गये हैं, शेष बच गए हैं, आदि मुनि दत्तात्रेय जी उसकी रक्षा करें.

 

मालामंत्रजप: । हृदयादिन्यास:

इसी प्रकार कवच के अन्त में भी पूर्ववत मालामन्त्र का जप, (करन्यास) हृदयादि अंगन्यास सम्पन्न कर लेना चाहिए.

एतन्मे वज्रकवचं य: पठेच्छृणुयादपि ।

वज्रकायश्चिरंजीवी दत्तात्रेयोsहमब्रुवम् ।।23।।

त्यागी भोगी महायोगी सुखदु:खविवर्जित: ।

सर्वत्रसिद्धसंकल्पो जीवन्मुक्तोsथ वर्तते ।।24।।

अर्थ

दत्तात्रेय जी कहते हैं कि जो मेरे इस वज्रकवच का पाठ एवं श्रवण करता है उसका सम्पूर्ण शरीर वज्र का हो जाता है और उसकी आयु भी अतिदीर्घ हो जाती है. यह मेरा स्वयं का कथन है. वह मेरे ही समान त्यागी, भोगी, महायोगी तथा सुख-दु:खों से परे हो जाता है, उसके सभी संकल्प सदा सर्वत्र सिद्ध होने लगते हैं और वह जीवन्मुक्त हो जाता है.

 

इत्युक्त्वान्तर्दधे योगी दत्तात्रेयो दिगम्बर: ।
दलादनोsपि तज्जप्त्वा जीवन्मुक्त: स वर्तते ।।26।।

अर्थ

ऎसा कहकर अवधूत दत्तात्रेय जी तो अन्तर्धान हो गए और दलादन मुनि भी इसका जपकर उनके ही समान जीवन्मुक्त के रूप में आज भी विद्यमान हैं.

 

भिल्लो दूरश्रवा नाम तदानीं श्रुतवादिनम् ।

सकृच्छृवणमात्रेण वज्रांगोsभवदप्यसौ ।।27।।

अर्थ

उसी समय दूरश्रवा नाम के उस भिल्ल ने भी इस स्तोत्र को दूर से सुन लिया था और एक ही बार सुनने से उसका भी शरीर वज्र के समान सुदृढ़ हो गया.

 

इत्येतद्वज्रकवचं दत्तात्रेयस्य योगिन: ।

श्रुत्वाशेषं शम्भुमुखात् पुनर्प्याह पार्वती ।।27।।

अर्थ

इस प्रकार महायोगी दत्तात्रेय जी के वज्रकवच को भगवान शंकर के मुख से सुनकर पार्वती जी ने उनसे पुन: प्रश्न किया.

 

पार्वत्युवाच

एतत्कवचमाहात्म्यं वद विस्तरतो मम ।

कुत्र केन कदा जाप्यं किं यज्जाप्यं कथं कथम् ।।28।।

अर्थ

पार्वती जी बोली – भगवन् ! आप कृपापूर्वक इस वज्रकवच का माहात्म्य मुझे विस्तारपूर्वक बताइए. इसके जप का कौन अधिकारी है और इसे कहाँ, किस प्रकार और कब-कैसे जपना चाहिए.

उवाच शम्भुस्तत्सर्वं पार्वत्या विनयोदितम् ।

श्रीशिव उवाच

श्रृणु पार्वति वक्ष्यामि समाहितमनाविलम् ।।29।।

धर्मार्थकाममोक्षाणामिदमेव परायणम् ।

हस्त्यश्वरथपादातिसर्वैश्वर्यप्रदायकम् ।।30।।

अर्थ

पार्वती जी के द्वारा विनीत भाव से पूछे जाने पर भगवान शंकर ने सब कुछ बतला दिया.

श्रीशिव बोले – पार्वती ! तुमने जो पूछा है उसे मैं बतला रहा हूँ. तुम ध्यान देकर सब सुनो. एकमात्र यह स्तोत्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सबका सम्पादन करने वाला है तथा हाथी, घोड़ा, रथ तथा पादचारी चतुरंगिणी सेना और सम्पूर्ण ऎश्वर्यों को प्रदान करने वाला है.

 

पुत्रमित्रकलत्रादिसर्वसन्तोषसाधनम् ।

वेदशास्त्रादिविद्यानां निधानं परमं हि तत् ।।31।।

संगीतशास्त्रसाहित्यसत्कवित्वविधायकम् ।
बुद्धिविद्यास्मृतिप्रज्ञामतिप्रौढिप्रदायकम् ।।32।।

अर्थ

इसके पढ़्ने से पुत्र, मित्र, स्त्री आदि तथा सर्वोपरि तत्त्व भगवत्प्राप्तिरूप संतोष भी प्राप्त हो जाता है और यही वेदशास्त्र आदि सभी विद्याओं तथा ज्ञान-विज्ञान का आकार है. साथ ही साथ यह संगीताशास्त्र, अलंकार, काव्य और श्रेष्ठ कविता के निर्माण का ज्ञान भी प्राप्त करा देता है. बुद्धि, विद्या, धारणाशक्तिरूप स्मृति, नव नवोन्मेषशालिनी प्रतिभाशक्ति तथा विशुद्ध बोधात्मिका बुद्धि आदि को भी यह प्रदान कर देता है.

 

सर्वसन्तोषकरणं सर्वदु:खनिवारणम् ।

शत्रुसंहारकं शीघ्रं यश:कीर्तिविवर्धनम् ।।33।।

अर्थ

यह सब प्रकार के क्लेशों को नष्ट करने वाला तथा सभी प्रकार से सुख-सन्तोषों को प्रदान करने वाला है. इसका पाठ तत्काल सभी काम, क्रोध आदि आन्तरिक और बाह्य-शत्रुओं का संहार कर यश और कीर्ति का विस्तार करता है.

 

अष्टसंख्या महारोगा: सन्निपातास्त्रयोदश ।

षण्णवत्यक्षिरोगाश्च विंशतिर्मेहरोगका: ।।34।।

अष्टादश तु कुष्ठानि गुल्मान्यष्टविधान्यपि ।

अशीतिर्वातरोगाश्च चत्वारिंशत्तु पैत्तिका: ।।35।।

विंशति श्लेष्मरोगाश्च क्षयचातुर्थिकादय: ।

मन्त्रयन्त्रकुयोगाद्या: कल्पतन्त्रादिनिर्मिता: ।।36।।

अर्थ

यह आठ प्रकार के महारोगों, तेरह प्रकार के सन्निपातों, छियानवें प्रकार के नेत्र-रोगों और बीस प्रकार के प्रमेह, अठारह प्रकार के कुष्ठ, आठ प्रकार के शूल-रोग, अस्सी प्रकार के वात-रोग, चालीस प्रकार के पित्त रोग, बीस प्रकार के कफ संबंधी रोग, साथ ही क्षय रोग, चतुराहिक, तिजरा और बारी आदि से आने वाले ज्वर एवं मन्त्र-यन्त्र, कुयोग, टोटना आदि से उत्पन्न रोग, दु:ख, पीडा़ आदि भी नष्ट हो जाते हैं.

 

ब्रह्मराक्षसवेतालकूष्माण्डादिग्रहोद्भवा: ।

संगजादेशकालस्थास्तापत्रयसमुत्थिता: ।।37।।

अर्थ

इसके अतिरिक्त भूत, प्रेत, ब्रह्मराक्षस, कूष्माण्ड आदि से होने वाले दैवी प्रकोप और दुष्ट ग्रहों के द्वारा गोचर से उत्पन्न अनेक प्रकार की पीड़ाएँ स्पर्श दोष से उत्पन्न होने वाली छूआछूत की बीमारियाँ और विभिन्न देश, काल से उत्पन्न होने वाली प्रतिश्याय (जुकाम आदि) शीत ज्वर (मलेरिया आदि) तथा तापत्रयों (आधिदैहिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक) का इससे शमन हो जाता है.

 

नवग्रहसमुद्भूता महापातकसम्भवा: ।

सर्वे रोगा: प्रणश्यन्ति सहस्त्रावर्तनाद्ध्रुवम् ।।38।।

अर्थ

इस कवच के सहस्त्रावर्तन – हजार बार पाठ करने से नवग्रह से उत्पन्न, पूर्व जन्म के पातक-महापातकों से उत्पन्न सभी रोग, दु:ख सर्वथा एवं निश्चित रूप से नष्ट हो जाते हैं.

 

अयुतावृत्तिमात्रेण वन्ध्या पुत्रवती भवेत् ।

अयुतद्वितयावृत्या ह्यपमृत्युजयो भवेत् ।।39।।

अर्थ

इसके दस हजार बार पाठ करने से वन्ध्या स्त्री को भी सुलक्षण पुत्र प्राप्त हो जाता है और इसके बीस हजार बार पाठ करने से अकाल मृत्यु भी दूर हो जाती है.

 

अयुतत्रितयाच्चैव खेचरत्वं प्रजायते ।

सहस्त्रादयुतादर्वाक् सर्वकार्याणि साधयेत् ।।40।।

लक्षावृत्या कार्यसिद्धिर्भवत्येव न संशय: ।।41।।

अर्थ

इसके तीस हजार पाठ करने से साधक आकाशगमन की शक्ति प्राप्त कर लेता है और हजार से लेकर दस हजार तक की संख्या में पाठ करते न करते सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं. इसके एक लाख आवृत्ति से नि:सन्देह साधक के सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं.

 

विषवृक्षस्य मूलेषु तिष्ठन् वै दक्षिणामुख: ।

कुरुते मासमात्रेण वैरिणं विकलेन्द्रियम् ।।42।।

अर्थ

गूलर के वृक्ष के नीचे दक्षिण की ओर मुखकर बैठकर इसका एक मास तक जप करने से शत्रु की सभी इन्द्रियाँ सर्वथा विकल हो जाती हैं.

 

औदुम्बरतरोर्मूले वृद्धिकामेन जाप्यते ।

श्रीवृक्षमूले श्रीकामी तिंतिणी शान्तिकर्मणि ।।43।।

अर्थ

गूलर के वृक्ष के नीचे धन-धान्य की वृद्धि करने के लिए जप करने का विधान है. लक्ष्मी प्राप्ति की कामना से बिल्व वृक्ष के नीचे एवं किसी भी उपद्रव की शान्ति के लिए इमली वृक्ष के नीचे जप करना चाहिए.

 

ओजस्कामोsश्वत्थमूले स्त्रीकामै: सहकारके ।

ज्ञानार्थी तुलसीमूले गर्भगेहे सुतार्थिभि: ।।44।।

अर्थ

तेज, ओज और बल की कामना से पीपल के वृक्ष के नीचे, विवाह की इच्छा से नवीन आम्र के वृक्ष के नीचे तथा ज्ञान की इच्छा से तुलसी वृक्ष के नीचे एवं पुत्र की कामना वालों को भगवान के मन्दिर के गर्भगृह में बैठकर इसका पाठ करना चाहिए.

 

धनार्थिभिस्तु सुक्षेत्रे पशुकामैस्तु गोष्ठके ।

देवालये सर्वकामैस्तत्काले सर्वदर्शितम् ।।45।।

अर्थ

धन की इच्छा वालों को किसी शुभ स्थान में बैठकर तथा पशु की इच्छा वालों को गौशाले में बैठकर पाठ करना चाहिए. देवालय में किसी भी कामना से बैठकर जप करने से उसकी तत्काल सिद्धि होती है.

 

नाभिमात्रजले स्थित्वा भानुमालोक्य यो जपेत् ।

युद्धे वा शास्त्रवादे वा सहस्त्रेण जयो भवेत् ।।46।।

अर्थ

जो नदी, सरोवर आदि में नाभिपर्यंत जल में स्थित होकर भगवान सूर्य को देखते हुए इस कवच का एक हजार बार जप करता है वह युद्ध, शास्त्रार्थ और सभी प्रकार के विवादों में विजयी होता है.

 

कण्ठमात्रे जले स्थित्वा यो रात्रौ कवचं पठेत् ।

ज्वरापस्मारकुष्ठादितापज्वरनिवारणम् ।।47।।

अर्थ

जो रात्रि में किसी जलाशय आदि में कण्ठमात्र जल में स्थित होकर इस कवच का पाठ करता है, उसके सामान्य ज्वर, मिर्गी, कुष्ठ और उष्ण ज्वर आदि ताप भी नष्ट हो जाते हैं.

 

यत्र यत्स्यात्सिथरं यद्यत्प्रसक्तं तन्निवर्तते ।

तेन तत्र हि जप्तव्यं तत: सिद्धिर्भवेद्ध्रुवम् ।।48।।

अर्थ

जहाँ कहीं जो कुछ उपद्रव, महामारी, दुर्भिक्ष आदि बीमारियाँ स्थिर हो गयी हैं, वहाँ जाकर इस कवच के जपमात्र से निश्चित ही वे उपद्रव आदि निर्वृत्त हो जाते हैं और शान्ति हो जाती है.

 

इत्युक्तवान शिवो गौर्यै रहस्यं परमं शुभम् ।

य: पठेद् वज्रकवचं दत्तात्रेयसमो भवेत् ।।49।।

अर्थ

व्यास जी ऋषियों से कहते हैं कि भगवान शंकर ने पार्वती जी से इस परम गुप्त और कल्याणकारी स्तोत्र को कहा था. जो व्यक्ति इस वज्रकवच का पाठ करता है वह भी परम सिद्ध दत्तात्रेय जी के समान ही समस्त गुणों से संपन्न हो जाता है.

 
एवं शिवेन कथितं हिमवत्सुतायै
प्रोक्तं दलादमुनयेsत्रिसुतेन पूर्वम् ।
य: कोsपि वज्रकवचं पठतीह लोके

दत्तोपमश्चरति योगिवरश्चिरायु: ।।50।।

अर्थ

इस बात को पहले अत्रिपुत्र दत्तात्रेय जी ने दलादन मुनि से कहा था और उसे ही भगवान शंकर ने पर्वतराज हिमालय की पुत्री भगवती पार्वती जी को बतलाया. जो व्यक्ति इस वज्रकवच का पाठ करता है वह चिरायु एवं योगियों में श्रेष्ठ होकर दत्तात्रेय भगवान की तरह सर्वत्र विचरण करता है.

इति श्रीरुद्रयामले हिमवत्खण्डे मन्त्रशास्त्रे उमामहेश्वरसंवादे श्रीदत्तात्रेयवज्रकवचस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।

इस प्रकार रुद्रयामल-तन्त्र के अन्तर्गत मन्त्रशास्त्ररूप हिमवत्खण्ड में शिव-पार्वती के संवाद रूप में श्रीदत्तात्रेय जी का वज्रकवच परिपूर्ण हुआ ।
दत्तात्रेय तंत्र में वशीकरण प्रयोग======================
 भगवान् दत्तात्रेय का उपासना तंत्र शीघ्र कामना की सिद्धि करने वाला माना जाता है। भगवान् दत्तात्रेय को अवतार की संज्ञा दी गयी है। कलियुग में अमर और प्रत्यक्ष देवता के रूप में भगवान् दत्तात्रेय सदा प्रशंसित एवं प्रतिष्ठित रहेंगे। दत्तात्रेय तंत्र देवाधिदेव महादेव शंकर के साथ महर्षि दत्तात्रेय का एक संवाद पत्र है। मोहन प्रयोग तुलसी-बीजचूर्ण तु सहदेव्य रसेन सह। रवौ यस्तिलकं कुर्यान्मोहयेत् सकलं जगत्।। तुलसी के बीज के चूर्ण को सहदेवी के रस में पीस कर तिलक के रूप में उसे ललाट पर लगाएं। उससे उसको देखने वाले मोहित हो जाते हैं। हरितालं चाश्वगन्धां पेषयेत् कदलीरसे। गोरोचनेन संयुक्तं तिलके लोकमोहनम्।। हरताल और असगन्ध को केले के रस में पीस कर उसमें गोरोचन मिलाएं तथा उसका मस्तक पर तिलक लगाएं तो उसको देखने से सभी लोग मोहित हो जाते हैं। श्रृङ्गि-चन्दन-संयुक्तो वचा-कुष्ठ समन्वितः। धूपौ गेहे तथा वस्त्रे मुखे चैव विशेषतः।। राजा प्रजा पशु-पक्षि दर्शनान्मोहकारकः। गृहीत्वा मूलमाम्बूलं तिलकं लोकमोहनम्।। काकडा सिंगी, चंदन, वच और कुष्ठ इनका चूर्ण बनाकर अपने शरीर तथा वस्त्रों पर धूप देने तथा इसी चूर्ण से तिलक लगाने पर राजा, प्रजा, पशु और पक्षी उसे देखने मात्र से मोहित हो जाते हैं। इसी प्रकार ताम्बूल की जड़ को घिस कर उसका तिलक करने से लोगों का मोहन होता है। सिन्दूरं कुङ्कुमं चैव गोरोचन समन्वितम्। धात्रीरसेन सम्पिष्टं तिलकं लोकमोहनम्।। सिन्दूर, केशर, और गोरोचन इन तीनों को आंवले के रस में पीसकर तिलक लगाने से लोग मोहित हो जाते हैं। सिन्दूरं च श्वेत वचा ताम्बूल रस पेषिता। अनेनैव तु मन्त्रेण तिलकं लोकनोहनम्।। सिन्दूर और सफेद वच को पान के रस में पीस कर आगे उद्धृत किये मंत्र से तिलक करें तो लोग मोहित हो जाते हैं। अपामार्गों भृङ्गराजो लाजा च सहदेविका। एभिस्तु तिलकं कृत्वा त्रैलोक्यं मोहयेन्नरः।। अपामार्ग-ओंगा, भांगरा, लाजा, धान की खोल और सहदेवी इनको पीस कर उसका तिलक करने से व्यक्ति तीनों लोकों को मोहित कर लेता है। श्वेतदूर्वा गृहीता तु हरितालं च पेषयेत्। एभिस्तु तिलकं कृत्वा त्रैलोक्यं मोहयेन्नरः।। सफेद दूर्वा और हरताल को पीसकर उसका तिलक करने से मनुष्य तीनों लोकों को मोह लेता है। मनःशिला च कर्पूरं पेषयेत् कदलीरसे। तिलकं मोहनं नृणां नान्यथा मम भाषितम्।। मैनसिल और कपूर को केले के रस में पीस कर तिलक करने से वह मनुष्यों को मोहित करता है। अथ कज्जल विधानम् गृहीत्वौदुम्बरं पुष्पं वर्ति कृत्वा विचक्षणैः। नवनीतेन प्रज्वाल्य कज्जलं कारयेन्निशि।। कज्जलं चांजयेन्नेत्रे मोहयेत् सकलं जगत्। यस्मै कस्मै न दातव्यं देवानामपि दुर्लभम्।। बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि गूलर के पुष्प से कपास रूई के साथ बत्ती बनाए और उस बत्ती को नवनीत से प्रज्वलित कर जलती हुई ज्वाला से काजल निकाले तथा उस काजल को रात में अपनी आंखों में लगा लें। इस काजल के लगाने से वह समस्त जगत को मोहित कर लेता है। ऐसा सिद्ध किया हुआ काजल किसी भी व्यक्ति को नहीं दें। अथ लेपविधानम् श्वेत-गुंजारसे पेष्यं ब्रह्मदण्डीय-मूलकम्। शरीरे लेपमात्रेण मोहयेत् सर्वतो जगत्।। श्वेतगुंजा सफेद घूंघची के रस में बह्मदण्डी की जड़ को पीस लें और उसका शरीर में लेप करें तो उससे समस्त जगत् मोहित हो जाता है। पंचांगदाडिमी पिष्ट्वा श्वेत गुंजा समन्विताम्। एभिस्तु तिलकं कृत्वा मोहयेत् सकलं जगत्।। अनार के पंचांग (जड़, पत्ते फल, पुष्प और टहनी) को पीसकर उसमें सफेद घुंघुची मिलाकर तिलक लगाएं। इस तिलक के प्रभाव से व्यक्ति समस्त जगत को मोहित कर लेता है। मन्त्रस्तु - इन प्रयोगों की सिद्धि के लिए अग्रिम दिए हुए मंत्रों के दस हजार जप करने से लाभ होता है। ”¬ नमो भगवते रुद्राय सर्वजगन्मोहनं कुरु कुरु स्वाहा।“ अथवा ”¬ नमो भगवते कामदेवाय यस्य यस्य दृश्यो भवामि यश्य यश्य मम मुखं पश्यति तं तं मोहयतु स्वाहा।। आकर्षण प्रयोग कृष्ण धत्तूरपत्राणां रसं रोचनसंयुतम्। श्वेतकर्वीर लेखन्या भूर्जपत्रे लिखेत् ततः।। मन्त्रं नाम लिखेन्मध्ये तापयेत् खदिराग्निना। शतयोजनगो वापि शीघ्रमायाति नान्यथा। काले धतूरे के पत्रों से रस निकालकर उसमें गोरोचन मिलाएं और स्याही बना लें। फिर सफेद कनेर की कलम से भोजपत्र पर जिसका आकर्षण करना हो उसका नाम लिखें और उसके चारों ओर मंत्र लिखें। फिर उसको खैर की लकड़ी से बनी आग पर तपाएं, इससे जिसके लिए प्रयोग किया हो, वह सौ योजन दूर गया हो तो भी शीघ्र ही वापस आ जाता है। अनामिकाया रक्तेन लिखेन्मन्त्रं च भूर्जके। यस्य नाम लिखन्मध्ये मधुमध्ये च निक्षिपेत्।। तेन स्यादाकर्षणं च सिद्धयोग उदाहृतः। यस्मै कस्मै न दातव्यं नान्यथा मम भाषितम्।। अनामिका अंगुली के रक्त से भोजपत्र पर मंत्र लिखें और मध् य में अभीष्ट व्यक्ति का नाम लिख कर मधु में डाल दें, इसमें जिसका नाम लिखा हुआ होगा उसका आकर्षण हो जाएगा। यह सिद्ध योग कहा गया है। अथाकर्षण मंत्र ”¬ नम आदिपुरुषाय अमुकस्याकर्षणं कुरु कुरु स्वाहा।“ एकलक्षजपान्मन्त्रः सिद्धो भवति सर्वथा। अष्टोत्तरशतजपादग्रे प्रयोगोऽस्य विधीयते।। इस मंत्र का एक लाख बार जप करने से यह मंत्र पूर्ण रूप से सिद्ध हो जाता है। तदंतर प्रयोग से पूर्व इस मंत्र का 108 बार जप करके इसका प्रयोग किया जाता है। सर्वजन वशीकरण प्रयोग ब्रह्मदण्डी वचाकुष्ठ चूर्ण ताम्बूल मध्यतः। पाययेद् यं रवौ वारे सोवश्यो वर्तते सदा।। ब्रह्मदण्डी, वच और कुठ के चूर्ण को रविवार के दिन पान में डालकर खिला दें। जिसको खिलाया जाए वह सदैव के लिए वश में हो जाता है। गृहीत्वा वटमूलं च जलेन सह घर्षयेत्। विभूत्या संयुतं शाले तिलकं लोकवश्यकृत।। बड़ के पेड़ की जड़ को पानी में घिस कर उसमें भस्म मिलाएं और उसका तिलक लगाएं तो उसे देखने वाले लोग वशीभूत हो जाते हैं। पुष्ये पुनर्नवामूलं करे सप्ताभिमन्त्रितम्। बुद्ध्वा सर्वत्र पूज्येत सर्वलोक वशङ्करः।। पुष्य नक्षत्र के दिन पुनर्नवा की जड़ को लाकर उसे वशीकरण मंत्र से सात बार अभिमंत्रित करें और हाथ में बांधे तो वह सर्वत्र पूजित होता है तथा सभी लोग उसके वशीभूत हो जाते हैं। पिष्ट्वाऽपामार्गमूलं तु कपिला पयसा युतम्। ललाटे तिलकं कृत्वा वशीकुयोज्जगत्त्रयम्।। कपिला गाय के दूध में अपामार्ग आंधी झाड़ा की जड़ को पीस कर ललाट पर तिलक करने से त्रिलोक को भी वश में किया जा सकता है। गृहीत्वा सहदेवीं च छायाशुष्कां च कारयेत्। ताम्बूलेन च तच्चूर्ण सर्वलोकवशंकरः।। सहदेवी को छाया में सुखाकर उसका चूर्ण बना लें तथा उसे पान में डाल कर खिलाएं तो सभी का वशीकरण हो जाता है। रोचना सहदेवीभ्यां तिलकं लोकवश्यकृत्। गोरोचन और सहदेवी को मिलाकर उसका तिलक करने वाला सब को वश में कर लेता है। गृहीत्वौदुम्बरं मूलं ललाटे तिलकं चरेत्। प्रियो भवति सर्वेषां दृष्टमात्रो न संशयः।। उदुम्बर की जड़ को घिस कर उससे जो तिलक लगाता है, उस पर जिसकी दृष्टि पड़ती है, वह उसके वश में हो जाता है। इसमें कोई संशय नहीं है। ताम्बूलेन प्रदातव्यं सर्वलोक वशङ्करम्। यदि गूलर की जड़ का चूर्ण पान में डालकर खिलाया जाए तो उससे वह वश में हो जाता है जिसे यह खिलाया जाता है। सिद्धार्थ देवदाल्योश्च गुटिकां कारयेद् बुधः। मुखे निक्षिप्य भाषेत सर्वलोक वशङ्करम्।। सरसों और देवदाली के चूर्ण की गोली बनाकर उसे मुंह में रखकर बातचीत करने से जिससे बात करता है, वह वश में हो जाता है। कुङ्कुमं नागरं कुष्ठं हरितालं मनःशिलाम्। अनामिकाया रक्तेन तिलकं सर्ववश्यकृत।। केशर, सोंठ, कुठ, हरताल और मैनसिल का चूर्ण करके उसमें अपनी अनामिका अंगुली का रक्त मिलाकर तिलक लगाने से सभी लोग वश में हो जाते हैं। गोरोचनं पद्मपत्रं प्रियङ्गुं रक्तचन्दनम्। एषां तु तिलकं भाले सर्वलोक वशङ्करम्।। गोरोचन, कमल का पत्र, कांगनी और लाल चंदन इनका ललाट पर तिलक करने से व्यक्ति वश में हो जाते हैं। गृहीत्वा श्वेतगुंजां च छयाशुष्कां तु कारयेत्। कपिला पयसा सार्द्ध तिलकं लोकवश्यकृत्।। सफेद घुंघुची को छाया में सुखा कर कपिला गाय के दूध में घिस कर तिलक करने से सर्वजन वश में हो जाते हैं। श्वेतार्क च गृहीत्वा च छायाशुष्कं तु कारयेत्। कपिला पयसा सार्द्ध तिलकं लोकवश्यकृत्।। सफेद मदार (आक) को छाया में सुखा कर कपिला गाय के दूध में घिस कर तिलक करने से सर्वजन वश में हो जाते हैं। श्वेतार्क च गृहीत्वा च कपिला दुग्ध मिश्रिताम्। लेपमात्रं शरीरे तु सर्वलोक वशङ्करम्।। सफेद दूर्वा को कपिला गाय के दूध में मिलाकर शरीर में लेप करने मात्र से सभी जन वश में हो जाते हैं। बिल्वपत्राणि संगृहय मातुलुंगं तथैव च। अजादुग्धेन तिलकं सर्वलोक वशङ्करम्।। बिल्व पत्र और बिजोरा नीबू को बकरी के दूध में पीसकर तिलक करने से सर्वजन वश में हो जाते हैं। कुमारी मूलमादाय विजया बीज संयुतम्। तलकं मस्तके कुर्यात् सर्वलोक वशङ्करम्।। घी कुंवारी की जड़ और भांग के बीज, दोनों को मिलाकर मस्तक पर तिलक करने से सर्वजन वश में हो जाते हैं। हरितालं चाश्वगन्धा सिन्दूरं कदली रसः। एषां तु तिलकं भाले सर्वलोक वशङ्करम्।। हरताल और असगन्ध को सिन्दूर तथा केले के रस म मिलाकर ललाट पर तिलक करने से सर्वजन वश में हो जाते हैं। अपामार्गस्य बीजानि छागदुग्धेन पेषयेत्। अनेन तिलकं भाले सर्वलोक वशङ्करम।। अपामार्ग के बीजों को बकरी के दूध में पीसकर उसका कपाल में तिलक लगाने से समस्त जन वश में होते हैं। ताम्बूलं तुलसी पत्रं कपिलादुग्धेन पेषितम्। अनेन तिलकं भाले सर्वलोक वशङ्करम्।। नागरबेल का पान और तुलसी पत्र को कपिला गाय के दूध में पीस कर उसका मस्तक पर तिलक लगाने से समस्त जन वश में हो जाते हैं। धात्रीफलरसैर्भाव्यमश्वगन्धा मनः शिला। अनेन तिलकं भाले सर्वलोक वशङ्करम्।। आंवले के रस में मैनसिल और असगंध को मिलाकर ललाट पर तिलक करने से समस्त जन वश में हो जाते हैं। अथ वशीकरण मंत्र इन उपर्युक्त वस्तुओं को अभिमंत्रित करने का मंत्र इस प्रकार है- ”¬ नमो नारायणाय सर्वलोकान् मम वशं कुरु कुरु स्वाहा।“ इसकी प्रयोगात्मक सफलता के लिए एकलक्षजपान्मन्त्रः सिद्धो भवति नान्यथा। अष्टोत्तरशतजपात् प्रयोगे सिद्धिरुत्तमा।। एक लाख जप से यह मंत्र सिद्ध होता है और प्रयोग के समय इस मंत्र का 108 बार जप करके प्रयोग करने से सफलता मिलती है। युवक एवं युवती वशीकरण प्रयोग रविवारे गृहीत्वा तु कृष्णधत्तूरपुष्पकम्। शाखां लतां गृहीत्वा तु पत्रं मूलं तथैव च।। पिष्ट्वा कर्पूरसंयुक्तं कुङ्कुमं रोचनां तथा। तिलकैः स्त्रीवशीभूता यदि साक्षादरुन्धती।। रविवार के दिन काले धतूरे के पुष्प, शाखा, लता और जड़ लेकर उनमें कपूर, केशर और गोरोचन पीसकर मिला दें और तिलक बना लें। इस तिलक को मस्तक पर लगाने से स्त्री चाहे वह साक्षात् अरुंधती जैसी भी हो, तो भी वश में हो जाती है। काकजङ्घा व तगरं कुङ्कुमं तु मनःशिलाम्।। चूर्ण स्त्रीशिरसि क्षिप्तं वशीकरणमद्भुतम्।। काकजङ्घा, तगर, केशर और मैनशिल का चूर्ण बनाकर उसे स्त्री के सिर पर डाले तो वह वश में हो जाती है। यह उत्तम वशीकरण है। ब्रह्मदण्डीं समादाय पुष्यार्केण तु चूर्णयेत्। कामार्ता कामिनीं दृष्ट्वा उत्तमाङ्गे विनिक्षिपेत्।। पृष्ठतः सा समायाति नान्यथा मम भाषितम्। रवि पुष्य के दिन ब्रह्मदंडी को लाकर उसको पीस लें। तदनंतर जिस काम पीड़ित कामिनी के मस्तक पर वह चूर्ण डाला जाए वह स्त्री ऐसी आकर्षक हो जाती है कि प्रयोग करने वाले पुरुष के पीछे-पीछे वह चली आती है। राजवशीकरण प्रयोग कुङ्कुमं चन्दनं चैव कर्पूरं तुलसीदलम्। गवां क्षीरेण तिलकं राजवश्यकरं परम्।। केशर, चंदन, कपूर और तुलसी पत्र को गाय के दूध में पीस कर तिलक करने से राजा का वशीकरण हो जाता है। करे सुदर्शनं मूलं बद्ध्वा राजप्रियो भवेत्। सुदर्शन जामुन की जड़ को हाथ में बांधकर मनुष्य राजा का अथवा अपने बड़े अधिकारी का प्रिय हो जाता है। हरितालं चाश्वगन्धां कर्पूरं च मनःशिलाम्। अजाक्षीरेण तिलकं राजवश्यकरं परम्।। हरताल, असगंध, कपूर तथा मैनसिल को बकरी के दूध म पीस कर तिलक लगाने से राजा का वशीकरण होता है। हरेत् सुदर्शनं मूलं पुष्यभे रविवासरे। कर्पूरं तुलसीपत्रं पिष्ट्वा तु वस्त्रलेपने।। विष्णुक्रान्तस्य बीजानां तैले प्रज्वाल्य दीपके। कज्जलं पातयेद रात्रौ शुचिपूर्व समाहितः।। कज्जलं चांजयेन्नेत्रे राजवश्यकरं परम्।। जामुन की जड़ को रविपुष्य के दिन लाए और कपूर तथा तुलसीपत्र के साथ पीस कर एक वस्त्र के ऊपर लपेट लें। तदनंतर अपराजिता के बीजों के तेल से दीपक जलाएं। दीपक से रात्रि में पवित्रता और सावधानी से काजल बनाएं और उसे अपने दोनों नेत्रों में लगा लें। ऐसा करने से राजा का वशीकरण होता है। भौमवारे दर्शदिने कृत्वा नित्यक्रियां शुचिः। वने गत्वा हयपामार्गवृक्षं पश्येदुदङ् मुखः।। तत्र विप्रं समाहूय पूजां कृत्वा यथा विधि। कर्षमेकं सुवर्ण च दद्यात् तस्मै द्विजन्मने।। तस्य हस्तेन गृहीणीयादपामार्गस्य बीजकम्। कृत्वा निस्तुषबीजानि मौनी गच्छेन्निजं गृहम्।। रमेशं हृदये ध्यात्वा राजानं खादयेच्च तान्। येनकेनाप्युपायेन यावज्जीवं वशं भवेत्।। मंगलवार के दिन वाली अमावस्या को अपना नित्यकर्म करके पवित्रता पूर्वक वन में चला जाए और वहां उत्तर की ओर मुंह करके खड़ा हो, अपामार्ग वृक्ष को देखे। फिर वहां ब्राह्मण को बुलाकर विधिपूर्वक उसकी पूजा करके उसे 16 माशा सुवर्ण दान दें और उसके हाथ से अपामार्ग के बीजों को साफ करके हृदय में भगवान विष्णु का ध्यान करें और जैसे भी बने वे बीज राजा को खिला दें। इस प्रकार प्रयोग करने से राजा जन्म भर के लिए दास बन जाता है। तालीस, कुठ और तगर को एक साथ पीस कर लेप बना लें। फिर नर कपाल में सरसों का तेल डालकर रेशमी वस्त्र की बत्ती जलाएं तथा काजल बनाएं। उस काजल को आंखों में लगा लें। इसमें जो भी देखने में आता है वह वश में हो जाता है। यह प्रयोग तीनों लोकों को वश में करने वाला है। अपामार्गस्य बीजं तु गृहीत्वा पुष्य भास्करे। खाने पाने प्रदातव्यं राजवश्यकरं परम्।। रविपुष्य के दिन अपामार्ग के बीज लाकर उन्हें भोजन में अथवा पानी में मिलाकर यदि राजा को खिला दिया जाए तो वह वश में हो जाता है। अथ वशीकरण मंत्र ”¬ नमो भास्कराय त्रिलोकात्मने अमुकं महीपतिं वशं कुरु कुरु स्वाहा।“ इसका विधान इस प्रकार है - एकलक्षजपादस्य सिद्धिर्भवति नान्यथा। अष्टोत्तरशतजपादस्य प्रयोगे सिद्धिरुत्तमा।। प्रथम पुरश्चरण के रूप में उपर्युक्त मंत्र का एक लाख बार जप कर लें। इससे निश्चित सिद्धि होती है और प्रयोग करने का अवसर आने पर एक सौ आठ बार जप करके प्रयोग करें तो उसमें पूर्ण सफलता प्राप्त होती है।
============जय महाकाल==========
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दत्तात्रेय तंत्र वशीकरण प्रयोग –

किसी भी बुधवार की रात को पीले वस्त्र पहनकर पीले रंग के आसन पर बैठें और आपका मुख उत्तर या पूर्व दिशा में होना चाहिए। अपने सामने एक चैकी पर पीला वस्त्र बिछाकर उस पर दत्तात्रेय यंत्र रखें और उस पर सिंदूर रखें। घी का एक दीपक जलाएँ और मूल मंत्र का रुद्राक्ष माला से 11 माला का जप करें। जप के पूरा होने पर सिंदूर को एक चाँदी की डिबिया में संभालकर रख लें। अब जब भी आपको किसी व्यक्ति को अपनी बात मनवानी हो या कोई काम करवाना हो, तो मंत्र का 11 बार जप करके चाँदी की डिबिया में रखे सिंदूर को अपने माथे पर लगाकर उस व्यक्ति के पास चले जाएँ, आपका कार्य अवश्य ही सफल होगा।

जिन महिलाओं के पति गलत संगत में पड़ गए हों, और उन्हें सुधारने के सभी उपाय विफल हो चुके हों, वे महिलाएँ इस सिंदूर को अपनी माँग में भरें या इसका टीका लगाएँ। उनका पति अवश्य ही सही मार्ग पर आ जाएगा। बस इस साधना को पूर्ण विश्वास और धैर्य के साथ सही प्रकार से विधिपूर्वक करें।

मंत्र – ‘‘ॐ श्रीं हृीं क्लीं ग्लौं द्राम दत्तात्रेयाय नमः’’

तंत्र को कामना की शीघ्रता से सिद्धि करने वाला कहा जाता है। भगवान् दत्तात्रेय को अवतार माना गया है। कलियुग में अमर और प्रत्यक्ष देवता के रूप में भगवान् दत्तात्रेय का स्थान हमेशा प्रशंसित एवं प्रतिष्ठित रहेगा। दत्तात्रेय तंत्र देवाधिदेव महादेव शंकर के साथ महर्षि दत्तात्रेय का एक संवाद पत्र है।

मोहन प्रयोग– ‘‘तुलसी–बीजचूर्ण तु सहदेव्य रसेन सह। रवौ यस्तिलकं कुर्यान्मोहयेत् सकलं जगत’’।
तुलसी के बीज के चूर्ण को सहदेवी के रस के साथ पीसकर तिलक के रूप में उसे माथे पर लगाएं। ऐसा करने पर उसको देखने वाला मोहित हो जाता है।

‘‘हरितालं चाश्वगन्धां पेषयेत् कदलीरसे। गोरोचनेन संयुक्तं तिलके लोकमोहनम’’
हरताल तथा असगन्ध को केले के रस के साथ पीसकर उसमें गोरोचन मिलाएं तथा उसका मस्तक पर तिलक लगाएं तो उसको देखने से सामने वाला व्यक्ति मोहित हो जाता है।

‘‘श्रृङ्गि–चन्दन–संयुक्तो वचा–कुष्ठ समन्वितः। धूपौ गेहे तथा वस्त्रे मुखे चैव विशेषतः। राजा प्रजा पशु–पक्षि दर्शनान्मोहकारकः। गृहीत्वा मूलमाम्बूलं तिलकं लोकमोहनम।’’
काकडा सिंगी, चंदन, वच और कुष्ठ इनको मिलाकर चूर्ण बना लें और इससे बनी धूप से अपने शरीर तथा वस्त्रों पर धूप देने तथा इसी चूर्ण से तिलक लगाने पर राजा, प्रजा, पशु और पक्षी उसे देखने से ही मोहित हो जाते हैं। इसी प्रकार ताम्बूल की जड़ को घिस कर उसका तिलक करने से लोगों को मोहन होता है।

‘‘सिन्दूरं कुङ्कुमं चैव गोरोचन समन्वितम। धात्रीरसेन सम्पिष्टं तिलकं लोकमोहनम’’
सिन्दूर, केशर, और गोरोचन इन तीनों को आंवले के रस में पीसकर तिलक लगाने से लोग मोहित हो जाते हैं।

‘‘सिन्दूरं च श्वेत वचा ताम्बूल रस पेषिता। अनेनैव तु मन्त्रेण तिलकं लोकनोहनम’’
सिन्दूर और सफेद वच को पान के रस में पीस कर नीचे दिए गए मंत्र से तिलक करें तो लोग मोहित हो जाते हैं।

अपामार्गों भृङ्गराजो लाजा च सहदेविका। एभिस्तु तिलकं कृत्वा त्रैलोक्यं मोहयेन्नरः।
अपामार्ग–ओंगा, भांगरा, लाजा, धान की खोल और सहदेवी इनको पीस कर उसका तिलक करने से व्यक्ति वांछित व्यक्ति को मोहित करने में सफल सहता है।

~~~~~~~~भगवान दत्तात्रेय यंत्र~~~~~~~~
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दत्तात्रेय तंत्र में वशीकरण प्रयोग भगवान् दत्तात्रेय का उपासना तंत्र शीघ्र कामना की सिद्धि करने वाला माना जाता है। भगवान् दत्तात्रेय को अवतार की संज्ञा दी गयी है। कलियुग में अमर और प्रत्यक्ष देवता के रूप में भगवान् दत्तात्रेय सदा प्रशंसित एवं प्रतिष्ठित रहेंगे। दत्तात्रेय तंत्र देवाधिदेव महादेव शंकर के साथ महर्षि दत्तात्रेय का एक संवाद पत्र है। मोहन प्रयोग तुलसी-बीजचूर्ण तु सहदेव्य रसेन सह। रवौ यस्तिलकं कुर्यान्मोहयेत् सकलं जगत्।। तुलसी के बीज के चूर्ण को सहदेवी के रस में पीस कर तिलक के रूप में उसे ललाट पर लगाएं। उससे उसको देखने वाले मोहित हो जाते हैं। हरितालं चाश्वगन्धां पेषयेत् कदलीरसे। गोरोचनेन संयुक्तं तिलके लोकमोहनम्।। हरताल और असगन्ध को केले के रस में पीस कर उसमें गोरोचन मिलाएं तथा उसका मस्तक पर तिलक लगाएं तो उसको देखने से सभी लोग मोहित हो जाते हैं। श्रृङ्गि-चन्दन-संयुक्तो वचा-कुष्ठ समन्वितः। धूपौ गेहे तथा वस्त्रे मुखे चैव विशेषतः।। राजा प्रजा पशु-पक्षि दर्शनान्मोहकारकः। गृहीत्वा मूलमाम्बूलं तिलकं लोकमोहनम्।। काकडा सिंगी, चंदन, वच और कुष्ठ इनका चूर्ण बनाकर अपने शरीर तथा वस्त्रों पर धूप देने तथा इसी चूर्ण से तिलक लगाने पर राजा, प्रजा, पशु और पक्षी उसे देखने मात्र से मोहित हो जाते हैं। इसी प्रकार ताम्बूल की जड़ को घिस कर उसका तिलक करने से लोगों का मोहन होता है। सिन्दूरं कुङ्कुमं चैव गोरोचन समन्वितम्। धात्रीरसेन सम्पिष्टं तिलकं लोकमोहनम्।। सिन्दूर, केशर, और गोरोचन इन तीनों को आंवले के रस में पीसकर तिलक लगाने से लोग मोहित हो जाते हैं। सिन्दूरं च श्वेत वचा ताम्बूल रस पेषिता। अनेनैव तु मन्त्रेण तिलकं लोकनोहनम्।। सिन्दूर और सफेद वच को पान के रस में पीस कर आगे उद्धृत किये मंत्र से तिलक करें तो लोग मोहित हो जाते हैं। अपामार्गों भृङ्गराजो लाजा च सहदेविका। एभिस्तु तिलकं कृत्वा त्रैलोक्यं मोहयेन्नरः।। अपामार्ग-ओंगा, भांगरा, लाजा, धान की खोल और सहदेवी इनको पीस कर उसका तिलक करने से व्यक्ति तीनों लोकों को मोहित कर लेता है। श्वेतदूर्वा गृहीता तु हरितालं च पेषयेत्। एभिस्तु तिलकं कृत्वा त्रैलोक्यं मोहयेन्नरः।। सफेद दूर्वा और हरताल को पीसकर उसका तिलक करने से मनुष्य तीनों लोकों को मोह लेता है। मनःशिला च कर्पूरं पेषयेत् कदलीरसे। तिलकं मोहनं नृणां नान्यथा मम भाषितम्।। मैनसिल और कपूर को केले के रस में पीस कर तिलक करने से वह मनुष्यों को मोहित करता है। अथ कज्जल विधानम् गृहीत्वौदुम्बरं पुष्पं वर्ति कृत्वा विचक्षणैः। नवनीतेन प्रज्वाल्य कज्जलं कारयेन्निशि।। कज्जलं चांजयेन्नेत्रे मोहयेत् सकलं जगत्। यस्मै कस्मै न दातव्यं देवानामपि दुर्लभम्।। बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि गूलर के पुष्प से कपास रूई के साथ बत्ती बनाए और उस बत्ती को नवनीत से प्रज्वलित कर जलती हुई ज्वाला से काजल निकाले तथा उस काजल को रात में अपनी आंखों में लगा लें। इस काजल के लगाने से वह समस्त जगत को मोहित कर लेता है। ऐसा सिद्ध किया हुआ काजल किसी भी व्यक्ति को नहीं दें। अथ लेपविधानम् श्वेत-गुंजारसे पेष्यं ब्रह्मदण्डीय-मूलकम्। शरीरे लेपमात्रेण मोहयेत् सर्वतो जगत्।। श्वेतगुंजा सफेद घूंघची के रस में बह्मदण्डी की जड़ को पीस लें और उसका शरीर में लेप करें तो उससे समस्त जगत् मोहित हो जाता है। पंचांगदाडिमी पिष्ट्वा श्वेत गुंजा समन्विताम्। एभिस्तु तिलकं कृत्वा मोहयेत् सकलं जगत्।। अनार के पंचांग (जड़, पत्ते फल, पुष्प और टहनी) को पीसकर उसमें सफेद घुंघुची मिलाकर तिलक लगाएं। इस तिलक के प्रभाव से व्यक्ति समस्त जगत को मोहित कर लेता है। मन्त्रस्तु - इन प्रयोगों की सिद्धि के लिए अग्रिम दिए हुए मंत्रों के दस हजार जप करने से लाभ होता है। ”¬ नमो भगवते रुद्राय सर्वजगन्मोहनं कुरु कुरु स्वाहा।“ अथवा ”¬ नमो भगवते कामदेवाय यस्य यस्य दृश्यो भवामि यश्य यश्य मम मुखं पश्यति तं तं मोहयतु स्वाहा।। आकर्षण प्रयोग कृष्ण धत्तूरपत्राणां रसं रोचनसंयुतम्। श्वेतकर्वीर लेखन्या भूर्जपत्रे लिखेत् ततः।। मन्त्रं नाम लिखेन्मध्ये तापयेत् खदिराग्निना। शतयोजनगो वापि शीघ्रमायाति नान्यथा। काले धतूरे के पत्रों से रस निकालकर उसमें गोरोचन मिलाएं और स्याही बना लें। फिर सफेद कनेर की कलम से भोजपत्र पर जिसका आकर्षण करना हो उसका नाम लिखें और उसके चारों ओर मंत्र लिखें। फिर उसको खैर की लकड़ी से बनी आग पर तपाएं, इससे जिसके लिए प्रयोग किया हो, वह सौ योजन दूर गया हो तो भी शीघ्र ही वापस आ जाता है। अनामिकाया रक्तेन लिखेन्मन्त्रं च भूर्जके। यस्य नाम लिखन्मध्ये मधुमध्ये च निक्षिपेत्।। तेन स्यादाकर्षणं च सिद्धयोग उदाहृतः। यस्मै कस्मै न दातव्यं नान्यथा मम भाषितम्।। अनामिका अंगुली के रक्त से भोजपत्र पर मंत्र लिखें और मध् य में अभीष्ट व्यक्ति का नाम लिख कर मधु में डाल दें, इसमें जिसका नाम लिखा हुआ होगा उसका आकर्षण हो जाएगा। यह सिद्ध योग कहा गया है। अथाकर्षण मंत्र ”¬ नम आदिपुरुषाय अमुकस्याकर्षणं कुरु कुरु स्वाहा।“ एकलक्षजपान्मन्त्रः सिद्धो भवति सर्वथा। अष्टोत्तरशतजपादग्रे प्रयोगोऽस्य विधीयते।। इस मंत्र का एक लाख बार जप करने से यह मंत्र पूर्ण रूप से सिद्ध हो जाता है। तदंतर प्रयोग से पूर्व इस मंत्र का 108 बार जप करके इसका प्रयोग किया जाता है। सर्वजन वशीकरण प्रयोग ब्रह्मदण्डी वचाकुष्ठ चूर्ण ताम्बूल मध्यतः। पाययेद् यं रवौ वारे सोवश्यो वर्तते सदा।। ब्रह्मदण्डी, वच और कुठ के चूर्ण को रविवार के दिन पान में डालकर खिला दें। जिसको खिलाया जाए वह सदैव के लिए वश में हो जाता है। गृहीत्वा वटमूलं च जलेन सह घर्षयेत्। विभूत्या संयुतं शाले तिलकं लोकवश्यकृत।। बड़ के पेड़ की जड़ को पानी में घिस कर उसमें भस्म मिलाएं और उसका तिलक लगाएं तो उसे देखने वाले लोग वशीभूत हो जाते हैं। पुष्ये पुनर्नवामूलं करे सप्ताभिमन्त्रितम्। बुद्ध्वा सर्वत्र पूज्येत सर्वलोक वशङ्करः।। पुष्य नक्षत्र के दिन पुनर्नवा की जड़ को लाकर उसे वशीकरण मंत्र से सात बार अभिमंत्रित करें और हाथ में बांधे तो वह सर्वत्र पूजित होता है तथा सभी लोग उसके वशीभूत हो जाते हैं। पिष्ट्वाऽपामार्गमूलं तु कपिला पयसा युतम्। ललाटे तिलकं कृत्वा वशीकुयोज्जगत्त्रयम्।। कपिला गाय के दूध में अपामार्ग आंधी झाड़ा की जड़ को पीस कर ललाट पर तिलक करने से त्रिलोक को भी वश में किया जा सकता है। गृहीत्वा सहदेवीं च छायाशुष्कां च कारयेत्। ताम्बूलेन च तच्चूर्ण सर्वलोकवशंकरः।। सहदेवी को छाया में सुखाकर उसका चूर्ण बना लें तथा उसे पान में डाल कर खिलाएं तो सभी का वशीकरण हो जाता है। रोचना सहदेवीभ्यां तिलकं लोकवश्यकृत्। गोरोचन और सहदेवी को मिलाकर उसका तिलक करने वाला सब को वश में कर लेता है। गृहीत्वौदुम्बरं मूलं ललाटे तिलकं चरेत्। प्रियो भवति सर्वेषां दृष्टमात्रो न संशयः।। उदुम्बर की जड़ को घिस कर उससे जो तिलक लगाता है, उस पर जिसकी दृष्टि पड़ती है, वह उसके वश में हो जाता है। इसमें कोई संशय नहीं है। ताम्बूलेन प्रदातव्यं सर्वलोक वशङ्करम्। यदि गूलर की जड़ का चूर्ण पान में डालकर खिलाया जाए तो उससे वह वश में हो जाता है जिसे यह खिलाया जाता है। सिद्धार्थ देवदाल्योश्च गुटिकां कारयेद् बुधः। मुखे निक्षिप्य भाषेत सर्वलोक वशङ्करम्।। सरसों और देवदाली के चूर्ण की गोली बनाकर उसे मुंह में रखकर बातचीत करने से जिससे बात करता है, वह वश में हो जाता है। कुङ्कुमं नागरं कुष्ठं हरितालं मनःशिलाम्। अनामिकाया रक्तेन तिलकं सर्ववश्यकृत।। केशर, सोंठ, कुठ, हरताल और मैनसिल का चूर्ण करके उसमें अपनी अनामिका अंगुली का रक्त मिलाकर तिलक लगाने से सभी लोग वश में हो जाते हैं। गोरोचनं पद्मपत्रं प्रियङ्गुं रक्तचन्दनम्। एषां तु तिलकं भाले सर्वलोक वशङ्करम्।। गोरोचन, कमल का पत्र, कांगनी और लाल चंदन इनका ललाट पर तिलक करने से व्यक्ति वश में हो जाते हैं। गृहीत्वा श्वेतगुंजां च छयाशुष्कां तु कारयेत्। कपिला पयसा सार्द्ध तिलकं लोकवश्यकृत्।। सफेद घुंघुची को छाया में सुखा कर कपिला गाय के दूध में घिस कर तिलक करने से सर्वजन वश में हो जाते हैं। श्वेतार्क च गृहीत्वा च छायाशुष्कं तु कारयेत्। कपिला पयसा सार्द्ध तिलकं लोकवश्यकृत्।। सफेद मदार (आक) को छाया में सुखा कर कपिला गाय के दूध में घिस कर तिलक करने से सर्वजन वश में हो जाते हैं। श्वेतार्क च गृहीत्वा च कपिला दुग्ध मिश्रिताम्। लेपमात्रं शरीरे तु सर्वलोक वशङ्करम्।। सफेद दूर्वा को कपिला गाय के दूध में मिलाकर शरीर में लेप करने मात्र से सभी जन वश में हो जाते हैं। बिल्वपत्राणि संगृहय मातुलुंगं तथैव च। अजादुग्धेन तिलकं सर्वलोक वशङ्करम्।। बिल्व पत्र और बिजोरा नीबू को बकरी के दूध में पीसकर तिलक करने से सर्वजन वश में हो जाते हैं। कुमारी मूलमादाय विजया बीज संयुतम्। तलकं मस्तके कुर्यात् सर्वलोक वशङ्करम्।। घी कुंवारी की जड़ और भांग के बीज, दोनों को मिलाकर मस्तक पर तिलक करने से सर्वजन वश में हो जाते हैं। हरितालं चाश्वगन्धा सिन्दूरं कदली रसः। एषां तु तिलकं भाले सर्वलोक वशङ्करम्।। हरताल और असगन्ध को सिन्दूर तथा केले के रस म मिलाकर ललाट पर तिलक करने से सर्वजन वश में हो जाते हैं। अपामार्गस्य बीजानि छागदुग्धेन पेषयेत्। अनेन तिलकं भाले सर्वलोक वशङ्करम।। अपामार्ग के बीजों को बकरी के दूध में पीसकर उसका कपाल में तिलक लगाने से समस्त जन वश में होते हैं। ताम्बूलं तुलसी पत्रं कपिलादुग्धेन पेषितम्। अनेन तिलकं भाले सर्वलोक वशङ्करम्।। नागरबेल का पान और तुलसी पत्र को कपिला गाय के दूध में पीस कर उसका मस्तक पर तिलक लगाने से समस्त जन वश में हो जाते हैं। धात्रीफलरसैर्भाव्यमश्वगन्धा मनः शिला। अनेन तिलकं भाले सर्वलोक वशङ्करम्।। आंवले के रस में मैनसिल और असगंध को मिलाकर ललाट पर तिलक करने से समस्त जन वश में हो जाते हैं। अथ वशीकरण मंत्र इन उपर्युक्त वस्तुओं को अभिमंत्रित करने का मंत्र इस प्रकार है- ”¬ नमो नारायणाय सर्वलोकान् मम वशं कुरु कुरु स्वाहा।“ इसकी प्रयोगात्मक सफलता के लिए एकलक्षजपान्मन्त्रः सिद्धो भवति नान्यथा। अष्टोत्तरशतजपात् प्रयोगे सिद्धिरुत्तमा।। एक लाख जप से यह मंत्र सिद्ध होता है और प्रयोग के समय इस मंत्र का 108 बार जप करके प्रयोग करने से सफलता मिलती है। युवक एवं युवती वशीकरण प्रयोग रविवारे गृहीत्वा तु कृष्णधत्तूरपुष्पकम्। शाखां लतां गृहीत्वा तु पत्रं मूलं तथैव च।। पिष्ट्वा कर्पूरसंयुक्तं कुङ्कुमं रोचनां तथा। तिलकैः स्त्रीवशीभूता यदि साक्षादरुन्धती।। रविवार के दिन काले धतूरे के पुष्प, शाखा, लता और जड़ लेकर उनमें कपूर, केशर और गोरोचन पीसकर मिला दें और तिलक बना लें। इस तिलक को मस्तक पर लगाने से स्त्री चाहे वह साक्षात् अरुंधती जैसी भी हो, तो भी वश में हो जाती है। काकजङ्घा व तगरं कुङ्कुमं तु मनःशिलाम्।। चूर्ण स्त्रीशिरसि क्षिप्तं वशीकरणमद्भुतम्।। काकजङ्घा, तगर, केशर और मैनशिल का चूर्ण बनाकर उसे स्त्री के सिर पर डाले तो वह वश में हो जाती है। यह उत्तम वशीकरण है। ब्रह्मदण्डीं समादाय पुष्यार्केण तु चूर्णयेत्। कामार्ता कामिनीं दृष्ट्वा उत्तमाङ्गे विनिक्षिपेत्।। पृष्ठतः सा समायाति नान्यथा मम भाषितम्। रवि पुष्य के दिन ब्रह्मदंडी को लाकर उसको पीस लें। तदनंतर जिस काम पीड़ित कामिनी के मस्तक पर वह चूर्ण डाला जाए वह स्त्री ऐसी आकर्षक हो जाती है कि प्रयोग करने वाले पुरुष के पीछे-पीछे वह चली आती है। राजवशीकरण प्रयोग कुङ्कुमं चन्दनं चैव कर्पूरं तुलसीदलम्। गवां क्षीरेण तिलकं राजवश्यकरं परम्।। केशर, चंदन, कपूर और तुलसी पत्र को गाय के दूध में पीस कर तिलक करने से राजा का वशीकरण हो जाता है। करे सुदर्शनं मूलं बद्ध्वा राजप्रियो भवेत्। सुदर्शन जामुन की जड़ को हाथ में बांधकर मनुष्य राजा का अथवा अपने बड़े अधिकारी का प्रिय हो जाता है। हरितालं चाश्वगन्धां कर्पूरं च मनःशिलाम्। अजाक्षीरेण तिलकं राजवश्यकरं परम्।। हरताल, असगंध, कपूर तथा मैनसिल को बकरी के दूध म पीस कर तिलक लगाने से राजा का वशीकरण होता है। हरेत् सुदर्शनं मूलं पुष्यभे रविवासरे। कर्पूरं तुलसीपत्रं पिष्ट्वा तु वस्त्रलेपने।। विष्णुक्रान्तस्य बीजानां तैले प्रज्वाल्य दीपके। कज्जलं पातयेद रात्रौ शुचिपूर्व समाहितः।। कज्जलं चांजयेन्नेत्रे राजवश्यकरं परम्।। जामुन की जड़ को रविपुष्य के दिन लाए और कपूर तथा तुलसीपत्र के साथ पीस कर एक वस्त्र के ऊपर लपेट लें। तदनंतर अपराजिता के बीजों के तेल से दीपक जलाएं। दीपक से रात्रि में पवित्रता और सावधानी से काजल बनाएं और उसे अपने दोनों नेत्रों में लगा लें। ऐसा करने से राजा का वशीकरण होता है। भौमवारे दर्शदिने कृत्वा नित्यक्रियां शुचिः। वने गत्वा हयपामार्गवृक्षं पश्येदुदङ् मुखः।। तत्र विप्रं समाहूय पूजां कृत्वा यथा विधि। कर्षमेकं सुवर्ण च दद्यात् तस्मै द्विजन्मने।। तस्य हस्तेन गृहीणीयादपामार्गस्य बीजकम्। कृत्वा निस्तुषबीजानि मौनी गच्छेन्निजं गृहम्।। रमेशं हृदये ध्यात्वा राजानं खादयेच्च तान्। येनकेनाप्युपायेन यावज्जीवं वशं भवेत्।। मंगलवार के दिन वाली अमावस्या को अपना नित्यकर्म करके पवित्रता पूर्वक वन में चला जाए और वहां उत्तर की ओर मुंह करके खड़ा हो, अपामार्ग वृक्ष को देखे। फिर वहां ब्राह्मण को बुलाकर विधिपूर्वक उसकी पूजा करके उसे 16 माशा सुवर्ण दान दें और उसके हाथ से अपामार्ग के बीजों को साफ करके हृदय में भगवान विष्णु का ध्यान करें और जैसे भी बने वे बीज राजा को खिला दें। इस प्रकार प्रयोग करने से राजा जन्म भर के लिए दास बन जाता है। तालीस, कुठ और तगर को एक साथ पीस कर लेप बना लें। फिर नर कपाल में सरसों का तेल डालकर रेशमी वस्त्र की बत्ती जलाएं तथा काजल बनाएं। उस काजल को आंखों में लगा लें। इसमें जो भी देखने में आता है वह वश में हो जाता है। यह प्रयोग तीनों लोकों को वश में करने वाला है। अपामार्गस्य बीजं तु गृहीत्वा पुष्य भास्करे। खाने पाने प्रदातव्यं राजवश्यकरं परम्।। रविपुष्य के दिन अपामार्ग के बीज लाकर उन्हें भोजन में अथवा पानी में मिलाकर यदि राजा को खिला दिया जाए तो वह वश में हो जाता है। अथ वशीकरण मंत्र ”¬ नमो भास्कराय त्रिलोकात्मने अमुकं महीपतिं वशं कुरु कुरु स्वाहा।“ इसका विधान इस प्रकार है - एकलक्षजपादस्य सिद्धिर्भवति नान्यथा। अष्टोत्तरशतजपादस्य प्रयोगे सिद्धिरुत्तमा।। प्रथम पुरश्चरण के रूप में उपर्युक्त मंत्र का एक लाख बार जप कर लें। इससे निश्चित सिद्धि होती है और प्रयोग करने का अवसर आने पर एक सौ आठ बार जप करके प्रयोग करें तो उसमें पूर्ण सफलता प्राप्त होती है।
============जय महाकाल==========
जय महाकाली 🚩
🚩🚩 दत्तात्रेय साधना 🚩🚩

आदेश आदेश मित्रो  आज मैं आपको गुरु दत्तात्रय जी की साधना दे रहा हु ये वो शक्ति है जिसके अंदर ब्रह्मा विष्णु  शिव इन तीनो की शक्ति है जो साधक भाई इनकी कृपा पाना चाहते है या अपने किसी भी समस्या से परेशान है तो इस साधना के जरिये  अपनी समस्या का निराकरण भी कर सकते है , ओर सबसे बड़ी बात इस साधना की है कि इसमे   स्वप्न के माध्यम से गुरु दत्तात्रेय जी के  दर्शन भी हो जायेगे, 

मन्त्र--- ॐ द्रां द्रिं द्रुं दत्तात्रेयाय स्वप्ने प्रकट प्रकट अवतर अवतर नमः

(om draam drim drum dattatreyaay swapne prakat prakat avatar avatar namah)

विधि- ये साधना किसी भी शुभ दिन से शुरू की जा सकती है दिशा उत्तर ले वस्त्र लाल रंग के दीपक घी का लगेगा भोग में कुछ मीठा रखे  , 11 दिन तक  रोज 21 माला जप अवश्य करे. 11 दिन के अंदर ही आपको दत्त गुरु के दर्शन अवश्य  हो जायेगे.. आप ये साधना करे और जीवन मे उच्च मुकाम हासिल करे यही शुभकामनाएं है।

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