विष्णु के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता नहीं
√•विष्णु के अतिरिक्त अन्य कोई सत्ता नहीं है। इस अद्वितीय विष्णु की गन्ध से सुवासित बुद्धि से मैं श्री महाराज जी को प्रणाम करता हूँ। विष्णु का नाम सम्पर है। इसलिये संसार बुद्धि से विष्णु का चिन्तन करता हूँ। संसार क्या है ? कैसा है ? कहाँ है ? कब है ? संसार संबंधी इन चार प्रश्नों का उत्तर है, किन्तु संसार क्यों है ? इसका उत्तर नहीं है। संसार है, यह सत्य है। संसार की सत्ता है, इसलिये इसका नाम भूः है। भुवे नमः।
√•जो व्यक्ति है, वही संसार है। जैसा व्यक्ति है, वैसा संसार है। जहाँ व्यक्ति है, वहीं संसार है। जब तक व्यक्ति है, तब तक संसार है। दो संसार हैं-भीदर का संसार, बाहर का संसार दोनों सत्य हैं। जितने व्यक्ति है, उतने संसार है। यह भी सत्य है। संसार में १४ भुवन हैं। व्यक्ति के भीतर (देह में) १४ भुवन हैं। इन १४ भुवनों को करण कहते हैं। एक कारण ही १४ करणों के रूप में व्यक्त हो रहा है। इनमें ४ अन्तःकरण एवं १० बहिकरण हैं। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार- ये चार अन्तःकरण है।
√•१. मन = संकल्प विकल्प करने वालो वृत्ति।
√•२. बुद्धि = निर्णय करने वाली शक्ति ।
√•३. चित्त = चिन्तन / वैचारिक क्षमता ।
√•४. अहंकार = स्वयं के होने/ बने रहने का बोध ।
√•••१० बहिष्करणों में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं।
√•१. श्रवणेन्द्रिय-कर्ण- शब्द ग्राहकता।
√•२. स्पर्शन्द्रिय त्वक्- शीत उष्ण कोमल कठिन की स्पर्शात्मक अनुभूति ।
√•३. दृश्येन्द्रिय-चक्षु देखने / रूप ग्रहण की सामर्थ्य ।
√•४. रसेन्द्रिय-जिल्हा- स्वाद वा रस का ज्ञान।
√•५. प्राणेन्द्रिय- नासिका - गन्ध ग्रहण की क्षमता ।
√•६. वागिन्द्रिय-मुख- बोलने का साधन ।
√• ७. करेन्द्रिय-हस्त करने की शक्ति, साधन ।
√•८. पादेन्द्रिय-चरण-गमन का धाम, गति साधन ।
√•९. जननेन्द्रिय उपस्य प्रजोत्पादन शक्ति साधन ।
√•१०. गुदेन्द्रिय-पायु- मल निष्कासन स्थान ।
√•इस प्रकार ४ + १० = १४ करण है। इन्हें वर्ष भी कहते हैं। वर्ष = देश/स्थान/लोक। अतः चतुर्दर्शकरण चतुर्दश वर्ष चतुर्दश लोक चतुर्दश भुवन इन १४ देशों का स्वामी आत्मा है। यही आत्मा राम है। आत्मा सर्वत्र रमण करती है। आत्मा में सब करण कोड़ा करते हैं। अतः यह आत्मा राम के नाम से जानी जाती है। यह आत्मतत्व ही राम है। रामाय नमः।
√•राम १४ वर्ष वन में रहे, यति धर्म का पालन किये। स्त्री के साथ रहते हुए भी उससे संसर्ग न रखे। केवल १४ वर्ष तक इससे अधिक वा कम नहीं- यही रहस्य है। लक्ष्मण १४ वर्ष तक शयन नहीं किये यह भी विशेष बात है। सीता १४ वर्ष तक पति के सहवास से मुक्त रही इसमें भी रहस्य है। ये सब विचारणीय बातें हैं। राम, लक्षमण, सीता के त्रयम्बक को समझना होगा। ये सब क्या है?
√•राम (ब्रह्म =मुक्त पुरुष) है। लक्ष्मण (जीव= बद्धपुरुष) हैं। सीता (माया= मूलप्रकृति) है। राम लक्ष्मण सीता- तीनों एक साथ रहते हैं। वनवास काल में राम आगे आगे चलते हैं। राम के पीछे सीता है। सीता के पीछे लक्ष्मण हैं। राम और लक्ष्मण के बीच में सोता हैं = ब्रह्म और जीव के बीच में माया रहती है। जो ब्रह्म से विमुख होकर माया को अपने पास रखता है, उसका नाश सुनिश्चित है। जैसे- रावण ने सीता (माया) को अपनी पुरी लंका ले गया। उसका क्या हुआ ? यह जगविदित है जो जीव (व्यक्ति) माया के पीछे चलता हुआ ब्रह्म (राम) का अनुगमन करता है, वह मृत्यु पर विजय पाता है।
√•सरल पथ पर राम आगे है, मध्य में सीता है, लक्ष्मण पीछे है। वृत्तीय पथ पर न कोई आगे है, न मध्य में और न पीछे है। सभी आगे पीछे मध्य में हैं—महत्त्वपूर्ण हैं। संसार वृत्तीयपथ है।
√•संसार चक्र अम्बक है। 'त्र्यम्बकं यजामहे।' बद्धजीव (लक्ष्मण), मुक्तजीव (राम) तथा मूल प्रकृति (सीता) का समवेत रूप संसार विचित्र अद्भुत एवं अवर्ण्य है।
√•एक-एक करण / लोक पर विजय पाने में एक-एक वर्ष लगते हैं। १४ करणों / लोकों पर आधिपत्य करने में १४ वर्ष लग जाते हैं। १४ भुवनों का अधिपति बनाने के लिये ही कैकेयी ने राम को १४ वर्षों का तपोमय वनवास दिया। ऐहिक भोगों से हटा कर त्याग एवं तप की ओर ढकेलने वाली शक्ति की कृपा ही कैकेयी है। इस कृपा को मैं नमन करता हूँ।
√•१० इन्द्रियों को मन में विलय कर मन सहित ११ इन्द्रियों को अहंकार में, इन्द्रिय सहित अहंकार को बुद्धि में तथा बुद्धि को चित्त में समाहित करना जीव को समाधि अवस्था है। जीव को गति समाधि तक हैं। ब्रह्म समाधि से परे (आगे) है। १४ करण/ लोक प्रकृति का विस्तार हैं। १४ लोकों से परे राम को नमस्कार । १४ लोकों का भार वहन करने वाले लक्ष्मण को नमस्कार । १४ लोक रूप सीता को नमस्कार !
√••इस १४ को लाभ की संज्ञा मिली है। कैसे ?
【१४- १२ = २ ।
२ से ११ को उत्पत्ति होती है।
२ +९ = ११ ।
११ = लाभ ।
अतः १४ महालाभ ।】
√• महालाभ कैसे हो ? सत्संग से सत्संग बड़े भाग्य से मिलता है। इस सत्संग से अनायास ही भव (दुःख) भंग (नाश) होता है। गोस्वामीजी कहते हैं-
"बड़े भाग पाइव सतसंगा ।
विनहि प्रयास होहिं भव भंगा ॥"
(उत्तरकाण्ड, रा.च.मा.)
√•सत्संग परम लाभ है। यह सत्संग इन १४ प्राणियों के लिये नहीं है। ये प्राणी कौन-कौन हैं ? गोस्वामी जी कहते हौ...
"कौल कामवस, कृषिन् विमूढा ।
अतिदरिद्र अजसी, अति बूढा़।।
सदा रोग बस, संतत क्रोधी।
विष्णु विमुख श्रुति संत विरोधी ॥
तनु पोषक निंदक अघखानी।
जीवित सव सम चौदह प्रानी ॥"
( लंकाकाण्ड)
√•१. कौल (वाममार्गी)
√•२. कामवश (लम्पट भोग लोलुप)
√•३. कृपण (कंजूस)
√•४. विमूढ़ (अत्यन्त मूर्ख, जड़मति)
√•५. अति दरिद्र ।
√•६. अयशी (कुख्यात)
√•७. अतिवृद्ध (अशक्त एवं स्मृतिहीन)
√•८. सदारोगवश (अधि व्याधि प्रस्त)
√•९. संतत कोधी (हर क्षण से भरा हुआ)।
√• १०. विष्णु विमुख (भगवान् का द्रोही)।
√• ११. श्रुति संत विरोधी (वेद और संत की निन्दा करने वाला)।
√•१२. वनु पोषक (केवल अपने शरीर को पोषण करने वाला) ।
√•१३. निन्दक (दूसरों में दोष देखने वाला)।
√•१४. अमखानी (पापी)। ये १४ प्राणी जीवित रहते हुए भी मृतक के समान हैं। मृतक के लिये सत्संग नहीं है। अपना कल्याण चाहने वाले अन्य जातक को इन १४ प्राणियों से दूर रहना चाहिये। ये १४ अलाभकर हैं।
√•१४ = ८ + ६।८ =मृत्यु अपमान का भाव ६ =शत्रु रोग का भाव। १४ से ऊपर उठना = मृत्यु अपमान शत्रु रोगादि से परे होना= स्वस्थता = स्वरूप में स्थित होना = आत्म लाभ = परमलाभ । यही इस जीवन का लक्ष्य है। पुनः १४ घन [१४- १२= २ = धन भाव]। १४ भुवन धन हैं। १४ करण धन हैं। इनसे परे होने का अर्थ है, इन का त्याग = सर्वत्याग। त्याग का अर्थ है, नये की प्राप्ति। नया क्या है ? आत्मा आत्मा नित्य नवीन है। इसकी प्राप्ति ही परम लाभ है। त्याग = प्राप्ति। इस सूत्र का उपदेश प्रकृति करती है। कैसे ? इस प्रकार-
√•हाथ से हम कोई वस्तु पकड़ते हैं तो उसे जब तक नहीं छोड़ेंगे तब तक दूसरी वस्तु की प्राप्ति असम्भव है। हम खड़े हैं का अर्थ है हमने अपने पैरों से वहाँ की धरती को पकड़ रखा है। जब तक इसे नहीं त्यागते आगे की धरती नहीं मिलती वा हम आगे नहीं बढ़ सकते। मुँह में भोजन का ग्रास लेते हैं, उसे जब तक नहीं त्यागते अन्दर नहीं करते, तब तक दूसरा ग्रास ग्रहण नहीं कर सके। त्यागते रहने से पेट भर जाता है। मूत्र का त्याग न करें तो क्या स्थिति होगी ? मल न त्यागें तो भोजन बन्द और मृत्यु निश्चित आँख से हम जिस दृश्य को पकड़ें, उसे यदि न छोड़े तो दूसरा दृश्य पा नहीं सकते। जिह्वा के लिये नित्य नया रस चाहिये। कान के लिये नये शब्द ज्ञान राग रागिनियाँ चाहिये। त्वचा के लिये नये स्पर्श एवं घ्राण के लिये नित्य नये गन्ध चाहिये। यह केवल त्याग से संभव है। मन से जो ज्ञान पकड़ा जाता है, उसे छोड़ करके ही मन दूसरे ज्ञान को ग्रहण करता है। बुद्धि वस्तु को तर्क से स्वीकारती और छोड़ती है। चित्त एक वस्तु का चिन्तन छोड़ कर ही दूसरी वस्तु का चिन्तन करता है। अहंकार किसी वस्तु में होता है तो उससे अहंकार मिटता है कि यह मेरा / मेरी नहीं है। इस प्रकार धीरे-धीरे अहंकार सबका त्याग कर देता है। अन्त में कुछ शेष नहीं रहता। इस अशेष की प्राप्ति ही परमलाभ है। यह अशेष इन १४ करणों से परे है और इन १४ करणों का कारण है। कारण और करण से कार्य (विश्व/जगत्) है। पहले कारण है। इसके बाद करण है। करण से कार्य है। कारण करण और कार्य तीन होकर भी एक हैं। कारण एक है। करण अनेक हैं। कार्य एक है। कारण= १ परमेश्वर, कारण स्वयं अपना कारण है, इसका अन्य कोई कारण नहीं है। करण= १४ प्रकृति वा उसके विकार। कार्य = १ जगत्। इस प्रकार १ + १४ +१ = १६ । विश्व १६ कलाओं वाला है। इस १६ कला वाले विश्व को कृष्ण कहते हैं। कृष्ण अवर्णनीय तत्व है। कालाय कृष्णाय ते नमः ।
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