ज्योतिष मे मृत्यु जीव आयु तंत्र दर्शन

√•सरलता एवं शान्ति की मूर्ति श्री महाराज जी का मैं प्रणाम से अभिषेक करता हूँ। 

√•पुरुष को कुण्डली में सप्तम भाव स्त्री है। सप्तम से पञ्चम अर्थात् एकादश स्थान स्त्री का उदर है। उदर में गर्भाशय होता है। अतः एकादश को स्त्री का गर्भ कहते हैं। पञ्चम स्थान पुत्र है। यह एकादश को देखता है। अतः पुत्र को स्त्री के गर्भ की अपेक्षा है। यह सत्य है। पुरुष की कुण्डली में पञ्चम स्थान शुभ है, एकादश अशुभ, तो पुत्र सुख बाधित होता है। ऐसे ही यदि पञ्चम अशुभ है तथा एकादश शुभ तो पुत्र योग को खण्डित समझना चाहिये। स्त्री की कुण्डली में पञ्चम उस का उदर / गर्भ है तो एकादश उसके • पति/पुरुष का पुत्र सुख/सन्तति विस्तार। अतः एकादश के सन्दर्भ में पञ्चम तथा पश्चम के सन्दर्भ में एकादश स्थान का विचार उचित एवं अनिवार्य है।
【 पचि विस्तारे→पञ्च→पञ्चम= उदर ।】

√•जिसका विस्तार हो, जो फैले, वह पञ्चम है। उदर फैलता है। स्त्री के गर्भ में स्थित भ्रूण जैसे-जैसे बढ़ता है वैसे-वैसे उसका पेट फैलता है। इसलिये गर्भ/ पेट को पश्चम कहते हैं। अनेकों सन्तानें होती हैं, सन्तानों का फैलाव होता है। इसलिये सन्तान पञ्चम है। सम् + तनु विस्तारे → सन्तान। जिससे विस्तार हो, जिसका फैलाव है, वह सन्तान है। अतः पञ्चम = सन्तान। दोनों में अर्थ साम्य है। इण गतौ-एक, दाश= दाने→दश। एकादश = गति (विस्तार) दाता । गति / विस्तार का अर्थ लाभ है। अतः पञ्चम = एकादश = लाभ। यह एक सूत्र है। एकादश और पश्चम- इन दोनों भावों को सदैव साथ-साथ पढ़ना चाहिये। दोनों लाभ हैं सन्तान हैं, विस्तार हैं। लौकिक लाभों में दो प्रमुख लाभ हैं-वित्त लाभ, पुत्र लाभ। किसी के पास वित्त (धन) है तो पुत्र (संतान) नहीं। किसी के पुत्र हैं तो धन नहीं। दोनों किसी-किसी को मिलते हैं। धन है तो उसका उत्तराधिकारी होना चाहिये। उत्तराधिकारी है तो उस के भोग के लिये धन होना चाहिये। जिसके दोनों है तो निश्चय ही उस पर प्रभु की कृपा है। ऐसे प्रभु को भुलाना दुर्भाग्य है। प्रभवे नमः ।

√√धनियों को अधिक सन्तानें नहीं होतीं। दरिद्रों के सन्तानों के झुण्ड होते हैं। अर्थात् अल्पसन्तान = सम्पन्नता एवं बहुसंतान = निर्धनता। दरिद्र हो, सन्तानहीन हो तो उसके दुःख का पार नहीं धनी हो, सन्तानयुक्त हो तो सुख समाता ही नहीं अति धनी व राजाओं के सन्ताने होती नहीं होती हैं तो कठिनता से। उदाहरण राजा दशरथ का है। प्रथम पत्नी कौशल्या से जब कोई सन्तान नहीं हुई तो उन्होंने दूसरा विवाह सन्तान हेतु किया। दूसरी पत्नी सुमित्रा से भी कोई सन्तान नहीं हुई। तब उन्होंने इस निमित्त तीसरा विवाह किया। राजा दशारथ ने कैकयराज से उनकी गुणवती शीलवती सुन्दरी कन्या माँगी। कैकयराज ने एक शर्त रखी। यदि वे (राजा दशरथ) उनकी कंन्या कैकेयी की सन्तान को राजा (युवराज) बनायें तो वे अपनी पुत्री का विवाह उनके साथ कर देंगे। राजा दशरथ इस शर्त को माने गये। उन्होंने प्रतिज्ञा किया कि वे कैकेयी के पुत्र को ही युवराज पद पर प्रतिष्ठित करेंगे। कैकेयी से सन्तान नहीं हुई। तब राजा ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराया। फलस्वरूप तीनों पत्नियों से चार सन्तानें हुई। कौशल्या से राम, सुमित्रा से लक्ष्मण तथा कैकेयी से भरत एवं शत्रुघ्न । इनमें भरत जी शत्रुघ्न से ज्येष्ठ थे। कालान्तर में राजा दशरथ ने अपनी कुल परम्परा के अनुसार अपने ज्येष्ठपुत्र कौशल्यानन्दन राम को युवराज बनाने का सर्वसम्मति से निश्चय किया। इसमें तीनों रानियाँ एकमत थीं। राम के राज्याभिषेक से पूर्व संध्या पर कैकेयी को राजा की उस प्रतिज्ञा का स्मरण हुआ, जिसे वे (राजा दशरथ) भूल चुके थे। अपने पति की प्रतिज्ञा को भंग होने से बचाने के लिये मनस्वी एवं व्युत्पन्न मति कैकेयी ने राजा को इसका स्मरण दिला कर उन्हें अनुचित कार्य करने से रोका। पुत्र सुख दशरथ के भाग्य में अत्यल्प था। अतः वे मर गये। श्रेष्ठ नारी कैकेयी, जिसके कारण राम लोक विश्रुत हुए, को मैं नमन करता हूँ।

√•जिसे पुत्र नहीं होता, वह उसकी प्राप्ति के लिये अनेकों उपाय करता है। ऐसा नहीं है कि पुत्रेष्टि यज्ञ करने से दशरथ को पुत्र की प्राप्ति हुई। एक अन्य प्रमुख कारण भी है। इस कारण का सम्बन्ध दान धर्म से है। सिद्धान्त है, जो जिस वस्तु को चाहता है, वह उसका दान सुपात्र को करे। पुत्रहीन व्यक्ति यदि पुत्र की इच्छा करता है तो वह भविष्य में होने वाले अपने पुत्र का दान किसी महात्मा ब्राह्मण को करे ऐसा 1 करने से वह योग्य पुत्र का पिता होता है। महापुरुष जब किसी को पुत्र देना चाहते हैं तो उससे पहले पुत्रदान का वचन लेते हैं। कालान्तर में उसे पुत्र की प्राप्ति होती है। प्राप्त पुत्र को यजमान पूर्ववचन का मान रखते हुए दान में दे देता है। लेने वाला अपना अर्थसिद्ध कर पुनः उसे उसका पुत्र दे देता है। वस्तु है नहीं, किन्तु यदि देने का शुद्ध भाव है तो वह वस्तु दान हेतु मिलेगी ही। महात्मा जटायु अविवाहित थे।। उन्होंने अपने लिये पुत्रहीन राजा दशरथ से उनका ज्येष्ठ पुत्र दान में माँगा। राजा ने अपने मित्र महात्मा जटायु को पुत्र देने का वचन दिया। कुछ काल बाद उस दान भाव के शुद्धता से दशरथ चार पुत्रों के पिता हुए। एक वस्तु का दान करने से चार गुना लाभ होता है। दशरथ जटायु को दिये गये वचन को भूल गये थे। जिस पुत्र को उन्हें महात्मा जटायु को दान में देना चाहिये, उसी को युवराज बनाने की तैयारी करने लगे। उनका यह वचन परमविदुषी रानी कैकेयी की स्मृति में जाग उठा अपने पति को इस महापाप से बचाने के लिये उसने पति से वरदान में राम को १४ वर्ष का वनवास माँगा। राम ज्येष्ठ थे ज्येष्ठ पुत्र जटायु को दिया जा चुका था। उस का राज्यारोहण करना अनुचित था। राम दशरथ के न होकर जटायु के थे जटायु वन में था। राम को वन भेजना ही एकमात्र विकल्प था। कैकेयी ने ऐसा कर, दान का वचन दे कर दान न देने के पाप से दशरथ को बचा लिया। धन्य है ऐसी पत्नी कैकेयी जो अपने पति को पतन के गर्त में गिरने से बचाया। राम अब जटायु के पुत्र थे। उन्होंने उस महात्मा का दाह संस्कार अपने हाथों कर पुत्र के धर्म को पूरा किया। इस ऋण से उऋण होने के पश्चात ही राम अयोध्या के राज्य के अधिकारी हुए। यह कथा पुत्रहीन को पुत्रवान् बनने का एक उपाय बताती है।

√•कै शब्दे ज्ञाने च कायति कै के करोतीति कैकेयी। जिसमें ज्ञान है किन्तु मूक नहीं है, जो ज्ञान में रहते हुए बोले, स्मृति में स्थित होकर वचन कहने वाली, कैकेयी है। दस इन्द्रियों की भूलभुलैया में भटकता व्यक्ति दशरथ है। विभ्रमित पति दशरथ का उद्धार करने वाली पत्नी विज्ञ कैकेयी को ज्ञानी जन नमस्कार करते हैं। जो नारी कैकेयी होगी, वही भरत (भ = ज्ञान, रत = लीन)= ज्ञानी पुत्र को जनती है। राम में प्रीति रखने वाला ज्ञानी वा भरत है।

√•श्रेष्ठ माता के गर्भ से श्रेष्ठ पुत्र का जन्म होता है। जिसकी सन्तान श्रेष्ठ है, उससे यह अनुमान लगा लेना चाहिये कि इस जातक की माता श्रेष्ठ होगी। जीव को जब तक उस के संस्कारों के अनुरूप गर्भ नहीं मिलता तब तक वह अन्तरिक्ष लोक में ही रहता है। उपयुक्त गर्भ की प्राप्ति होने पर वह जीवात्मा गर्भ में प्रवेश करती है। कुसंस्कारी जीव के लिये कुसंस्कारी माता का गर्भ तथा सुसंस्कारी जीव के लिये सुस्कारी माता का गर्भ प्रकृति की व्यवस्था का अंग है। जैसा गर्भ वैसा जीव। जैसी माता वैसा जातक माता प्रथम गुरु है। गर्भाधान के क्षण से लेकर प्रसव पर्यन्त वह गर्भस्थ जीव में संस्कार डालती है। जन्म से लेकर स्तनपान पर्यन्त वह अपने संस्कारों से उसे सज्जित करती है। पिता उस जीव/ जातक का द्वितीय गुरु तृतीय गुरु वह होता है जो उसे द्विजत्व प्रदान करता है, सावित्री मंत्र से संस्कारित करता यज्ञोपवीती बनाता तथा विद्या प्रदान करता है। चतुर्थ गुरु वह है जो ब्रह्म ज्ञान दे, सुख दुःख के द्वन्द्व से मुक्त करे, अभय पद पर प्रतिष्ठित करे। ये चारों गुरु आदरणीय हैं। प्रथम गुरु माता तथा अन्तिम गुरु ब्रह्मवेत्ता विशेष आदणीय हैं। इनके ऋण को चुकाया नहीं जा सकता।

√√भरत जैसे ज्ञानी, वीर एवं विनीत राम भक्त को जनने वाली माता क्या साधारण नारी हो सकती है ? निश्चय हो भरत की माता कैकेयी विदुषी, वीरांगना एवं वात्सल्यमयी थी। सन्तान के चरित्र से उसकी माता के आचार एवं शीलधर्म का अनुमान लगाना सहज है। जातक की कुण्डली में चतुर्थ भाव माता का है। चतुर्थ से पञ्चम अर्थात् अष्टम भाव माता का गर्भ हुआ। अष्टम भाव मृत्यु है। अतः माता का गर्भ जातक/जीव के लिये मृत्यु (कष्ट का स्थान) हुआ। जीव ९ महीनों तक जिस गर्भ में रहता है, वह सुख का स्थान नहीं है। वहाँ वह ९ महीन तप करता है। बिना तप किये कोई गर्भ से बाहर नहीं आता = बिना तप के कोई दुःख से छुटकारा नहीं पाता। इससे निष्कर्ष निकला हर जातक तपस्वी है। विडम्बना यह है कि तपस्वी जातक माता के गर्भ से निकलने के बाद तप से विमुख हो जाता है और सुख की खोज में जीवन भर मारा-मारा फिरता है, सुख नहीं पाता मिथ्या सुख से चिपका रहता है। जो जातक जन्म के बाद जीवन में प्रकृष्ट तप करता है, वह धन्य है। उसे मेरा सादर प्रणाम ।

【 भाव १ = जातक स्वयं ।
 भाव ७ = पत्नी।
 भाव ११ पत्नी का गर्भ ।
भाव ४ = माता । 
भाव ८ = माता का गर्भ ।
 त्रिपडाय ३, ६, ११ = अशुभ स्थान । 
भाव ८= दुःस्थान।】

√•अतएव गर्भस्थान = कष्ट स्थान = तप स्थान सुख का बीज स्थान। गर्भस्थान में जीव शरीर प्राप्त करता है, शरीर पुष्ट होता है, संस्कारों, प्रभावों की प्राप्ति होती है। गर्भ स्थान विश्वकर्मा की कार्यशाला है। इस कार्यशाला में देहों का निर्माण होता है। स्त्री एक के बाद एक अर्थात् अनेक सन्तानों को जनती है। देहों को इस निर्माण स्थली के महत्व को वही जान सकता है, जो इसके उत्पाद शरीर को जाने। शरीर क्या है, कैसे बना है, किन-किन तत्वों से बना है? इन सब बातों को में कृष्ण यजुर्वेदीयगर्भोपनिषद् के आधार पर यहाँ रखता हूँ। उपनिषद् कहता है....

√•"ऊं पञ्चात्मक पञ्चसु वर्तमानन षड़ाश्रयं षड्गुणयोगयुक्तम। तं सप्तधातु त्रिमल द्वियोनिं चतुर्विधाहारमयं शरीरं भवति। पञ्चात्मकमिति कस्मात् पृथिव्यावायुराकाशमयस्मिन् पशात्मके शरीरे तत्र का पृथिवी का आपः किं तेज को वायुः किमाकाशमिति । अस्मिन् पञ्चात्मके शरीरे तत्र यत् कठिन सा पृथिवी पता आर पटुत यत् संचरति स वायुः सुचिरं तदाकाशमत्युच्यते पृथिवी धारणे आपः पिण्डीकरणे तेजः प्रकाशने वायुर्व्यूहने आकाशमवकाशप्रदाने।"

√•मनुष्य देह पञ्चात्मक है, पाँचों में वर्तमान है, छः आश्रयों वाला है, छः गुणों के योग से युक्त है। उस शरीर में सात धातुएँ हैं, तीन मल हैं, दो योनियाँ हैं। शरीर चार प्रकार के आहारों से पोषित होता है। शरीर पञ्चात्मक कैसे ? पृथ्वी जल तेज वायु आकाश-इन पाँचों से बना होने के कारण शरीर पञ्चात्मक है। उस / इस शरीर में पृथ्वी क्या है ? जल क्या है ? तेज क्या है ? वायु क्या है ? आकाश क्या है ? इस शरीर में जो कठिन तत्व है, वह पृथ्वी है, जो द्रव है, वह जल है, जो उष्ण है, वह तेज है; जो संचार करता है वह वायु है; जो छिद्र है वह आकाश कहलाता है। इनमें पृथ्वी धारण करती है, जल एकत्रित करता है, तेज से प्रकाशन होता है, वायु अवयवों को यथा स्थान रखता है, आकाश अवकाश प्रदान करता है।

"पृथक् श्रोत्रे शब्दोपलब्धौ त्वक् स्पर्श चक्षुषी रूपे जिह्वा रसने नासिका घ्राणे उपस्थ आनन्दने अपान उत्सर्गे बुद्ध्या बुद्ध्यति मनसा संकल्पयति वाचा वदति।"

 √•इसके अतिरिक्त श्रोत्र से शब्द की उपलब्धि होती है, त्वचा से स्पर्श की अनुभूति होती है, चक्षु से रूप का ज्ञान होता है, जिह्वा से रस का स्वाद मिलता है, नासिका से गन्ध का ग्रहण, उपस्थ से आनन्द, पायु से मलोत्सर्ग, बुद्धि से ज्ञान की प्राप्ति, मन से संकल्प होता है, वाक् इन्द्रिय से वाणी निकलती है।

 "षडाश्रयमिति कस्मात् ? मथुरालवणतिक्तकषाय रसान्  विदतीति। षड्ज ऋषभगान्धारमध्यमपञ्चमधैवत निषादश्चेति इष्टानिष्टशब्दसंज्ञाः प्रणिधानाद् दशविधा भवन्ति।"

√•शरीर छः आश्रयों वाला कैसे ? इसलिये कि वह मधुर, अम्ल, लवण, तिक्त, कटु, कषाय- इन ६ रसों का आस्वादन करता है। पहज ऋषभ गान्धार मध्यम पश्चम धैवत निषाद-ये ७ स्वर तथा इष्ट, अनिष्ट एवं प्रणिधान कारक (प्रणवादि) शब्द मिला कर दस प्रकार के शब्द (स्वर) होते हैं।

 "शुक्लो रक्तः कृष्णों धूम्रः पीतः कपिल पाण्डुर इति।"
 
√•श्वेत रक्त कृष्ण, धूम्र, पीत, कपिल (खाकी), पाण्डुर (पीताभश्वेत) -देह के ये सात रंग हैं।

 "सप्तधातुकमिति कस्मात् ? यदा जातकस्य द्रव्यादि विषया जायन्ते परस्परं सौम्यगुणत्वात् षड्विधो रसो रसाच्छोणित शोणितान् मासं मासान् मेदो मेदसः स्नायवः स्नायुभ्योऽस्थीनि आस्थिभ्यो मज्जा मज्जातः शुक्रं शुकशोणित संयोगात् आवर्तते गर्भो हृदि व्यवस्था नयति हृदयेऽन्तराग्निः अग्निस्थान पित पित्तस्थाने वायुः वायुतो हृदयं प्रजापत्यात् क्रमात्।"

√•सप्त धातुओं से यह शरीर कैसे बनता है ? जब जातक का द्रव्यादि भोग विषयों से सम्बन्ध होता है तब उनके परस्पर अनुकूल होने के कारण पड्स पदार्थ प्राप्त होते हैं। इससे रस बनता है। रस से रुधिर, रुधिर से मांस, मांस से मेद, भेद से स्नायु, स्नायु से आदि, अस्थि से मज्जा मज्जा से शुक्र-ये ७ धातुएँ उत्पन्न होती हैं। पुरुष के शुक्र और स्त्री के रक्त के संयोग से गर्भ का निर्माण होता है। ये सब धातुएँ हृदय में रहती हैं। हृदय में अन्तराग्नि उत्पन्न होती है। अग्निस्थान में पित्त, पित्त के स्थान में वायु और वायु से हृदय (मन) का निर्माण सृजन-क्रम से होता है।

 "ऋतुकाले संप्रयोगादेकरात्रोषित कललं भवति। सप्तरात्रोषितं बुद्बदं भवति । अर्धमासाभ्यन्तरे पिण्डो भवति । मासाभ्यन्तरे कठिनो भवति। मासद्वयेन शिर सम्पद्यते। मास त्रयेण पाद प्रदेशो भवति । अथ चतुर्वे मासे गुल्फजठरक्तप्रदेशा भवन्ति । पञ्चमे मासे पृष्ठवंशो भवति । पष्ठे मासे मुखनासिकाक्षिश्रोत्राणि भवन्ति । सप्तमे मासे जीवन संयुक्तो भवति । अष्टमे मासे सर्वलक्षण सम्पूर्णे भवति ।"

 √•ऋतुकाल में सम्यक् प्रकार से गर्भाधान होने पर एक रात्रि व्यतीत होने पर शुक्रशोणित के संयोग से कलल बनता है। सात रात्रों में बुद्बुद बनता है। एकपक्ष में उसका पिण्ड बनता है। एक मास में कठिन होता है। एक ऋतु (२ मास) में वह सिर से युक्त होता है। तीन महीने में पैर बनते हैं। चौथे महीने में है गुल्फ, पेट तथा कटि भाग तैयार होते हैं। पाँचवे महीने में पृष्ठवंश बनता है। छठें महीने मुख, नासिका, नेत्र, कान बनते हैं। सातवें महीने जीवन से युक्त होता है। आठवें महीने सब लक्षणों से युक्तपूर्ण होता है।

 "पितु रेतोऽतिरेकात् पुरुषो मातू रेतोऽतिरेकात् स्त्री,उभयोर्बीजतुल्यत्वात् नपुंसको भवति। व्याकुलितोऽन्या खञ्च कृब्जा वामना भवन्ति।अन्योन्यवापरिपीडित शुक्र द्वैविध्यात्तनु स्यात्ततो युग्माः प्रजायन्ते ।" 

√• पिता के रेतस् की अधिकता से पुत्र, माता के रज की अधिकता से पुत्री तथा दोनों के वीर्य एवं रज के तुल्य होने पर नपुंसक सन्तान उत्पन्न होती है। व्याकुल चित्त होकर समागम (गर्भाधान) करने से अन्धो कुबड़ी, लंगड़ी नाटी (उन्मत्त) सन्तान उत्पन्न होती है। परस्पर वायु के परिपीडन (संघर्ष / विरुद्ध गति) से शुक्र दो भागों में बँट कर सूक्ष्म हो जाता है; उससे युग्म / यमल / जुड़वा सन्तानों की उत्पत्ति होती है। 

"पञ्चात्मकः समर्थः पञ्चात्मिका चेतसा बुद्धिर्गन्धरासादि-ज्ञानाक्षराक्षरमोंकारं चिन्तयतीति तदेतदेकाक्षरं ज्ञात्वाष्टी प्रकृतयः षोडशविकाराः शरीरे तस्यैव देहिनः ।" 

√•उस पञ्चभूतों के समर्थ शरीर में पञ्चेन्द्रिय युक्त चेतना से बुद्धि गन्ध रस रूप स्पर्श शब्द को जानती है। वह जीव आठ प्रकृति (प्रधान, महत्तत्व, अहंकार, पञ्चतन्मात्रा) तथा सोलह विकारों (पाँच ज्ञानेन्द्रिय + पाँच कर्मेन्द्रिय + पाँच महाभूत मन) को जान कर अविनाशी अक्षर ओंकार का चिन्तन करता है।

 “अथ मात्राशितपीतनाडीसूत्रगतेन प्राण आप्यायते । अथ नवमें मासि सर्वलक्षणज्ञानकरण सम्पूर्णो भवति । पूर्व जाति स्मरति । शुभाशुभं व कर्म विन्दति पूर्वयोनि सहस्राणि दृष्ट्वा चैव ततो मया आहारा विविधा भुक्ताः पीता नानाविधाः स्तनाः। जातश्चैव मृतश्चैव जन्म चैव पुनः पुनः । यन्मया परिजनस्यार्थे कृतं कर्म शुभाशुभम्। एकाकी तेन दयेऽहं गतास्ते फलभोगिनः। अहो दुःखोदधौ मग्नो न पश्यामि प्रतिक्रियाम्। यदि यो प्रमुच्येऽहं तत्प्रपद्ये महेश्वरम्। अशुभयकर्तारं फलमुक्ति प्रदायकम्। यदि योन्याः प्रमुच्येऽहं तत्प्र नारायणम्। अशुभक्षयकर्तारं फलमुक्ति प्रदायकम्। यदि योन्याः प्रमुच्येऽहं ध्याये ब्रह्म सनातनम्। अथ योनिद्वारं सम्प्राप्तो यन्त्रेणा पीड्यमानो महता दुःखेन जातमात्रस्तु वैष्णवेन वायुना संस्पृष्टः तदा न स्मरति जन्ममरणानि न चकर्म शुभाशुभं विन्दति।"

√•माता का खाया हुआ अन्न तथा पिया हुआ जल नाडी जालों द्वारा जाकर गर्भस्थ शिशु के प्राणों को तृप्त करता है। नवें महीने वह शिशु ज्ञानकरणादि सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त होता है। तब वह अपने पूर्व जन्मों का स्मरण करता है। वह अपने पूर्वकृत शुभ एवं अशुभ कर्मों को जानता है। तब वह सोचने लगता है- मैंने सहस्रों पूर्व जन्मों को देखा उनमें नाना प्रकार के भोजन किये, नाना प्रकार के एवं नाना योनियों के स्तनों का पान किया। मैं बारम्बार उत्पन्न हुआ तथा मृत्यु को प्राप्त हुआ। उन सभी योनियों में मैंने अपने परिवार वालों के लिये जो शुभाशुभ कार्य किये, उसी से मैं यहाँ अकेला (गर्भ में) दग्ध हो रहा हूँ। उनके फलों को भोगने वाले चले गये। अरे मैं यहाँ दुःख के समुद्र (गर्भ) में पड़ा कोई उपाय नहीं देख रहा हूँ। यदि मैं इस योनि से छूट जाऊंगा-इस गर्भ के बाहर निकल गया तो अशुभ कर्मों का नाश करने वाले तथा मुक्ति (आनन्द) को प्रदान करने वाले महेश्वर के चरणों का आश्रय लूँगा। यदि मैं योनि से छूट जाऊंगा तो अशुभ कर्मों का नाश करने वाले, मुक्ति रूप फल को प्रदान करने वाले भगवान् नारायण की शरण ग्रहण करूँगा। यदि मैं योनि से बाहर निकलूंगा तो अशुभ कर्मों के नाशक तथा मुक्तिदाता सांख्य एवं योग के मार्ग का अवलम्बन लूंगा। यदि मैं इस बार गर्भ से बाहर हुआ तो ब्रह्मा का ध्यान करूंगा। पश्चात् वह योनिद्वार को प्राप्त होकर, योनिरूप यन्त्र में दबाया जा कर बड़े कष्ट से जन्म ग्रहण करता है। गर्भ से बाहर निकलते ही वैष्णवी वायु के स्पर्श से वह अपने पिछले जन्मों एवं मृत्युओं को भूल जाता है तथा शुभाशुभ कर्म भी उसके सामने से हट जाता है।

√•पुरुष की कुण्डली में एकादश भाव उसकी स्त्री का गर्भाशय है। पुरुष का इस गर्भाशय में प्रवेश करना, उसमें ९ महीने रहना तथा दसवें महीने उससे बाहर निकलना ही वास्तविक लाभ है। गर्भ में प्रवेश न करना हानि है। गर्भ में प्रवेश करके उसी में मर जाना (गर्भ का स्राव होना) हानि है। गर्भ के बाहर आकर बिना भगवान का भजन किये, ज्ञान पाये मर जाना भी हानि है। हम सब माता के गर्भ से बाहर आये है और गुरु मुख हैं, ईशोन्मुख हैं, ज्ञानाभिमुख हैं, उपसनारत है, यह बड़ा भारी लाभ है। जो लोग ऐसे नहीं हैं, नश्वर पदार्थों के सञ्चय में जुटे हुए हैं, आत्मा से विमुख, गुरु से विहीन, सत्संग से च्युत होकर इन्द्रियों एवं उनके विषयों से खेलने में मत हैं, ऐसे लोगों को आत्मघाती कहते हैं। ऐहिक दृष्टि से जो लाभ में दिखते हैं, ये सब हानि में हैं। इन्हें भी लाभ हो, इसके लिये मैं भक्तिपूर्ण सत्यवान् का अमृत रस वर्षाता रहता हूँ ।

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