सूर्य तत्त्व तंत्र विवेचना

मैने सूर्य के १०८ नामों से हवन किया। पूर्वकाल में भगवान् कृष्ण ने इन १०८ नामों से सूर्य का स्तवन किया था। सूर्य को नमस्कार करने से ऐहिक एवं स्वर्गीय सभी लाभ निश्चित रूप से प्राप्त होते हैं। अतः हम प्रतिदिन सूर्य को क्यों न नमन करें ?

 आदित्य, भास्कर, भानु, रवि, सूर्य, दिवाकर, प्रभाकर, दिवानाय तपन, वचनानांश्रेष्ठ, वरेण्य, वरद, विष्णु अना, वासवानुज, बल, वीर्य, सहस्रांश सहस्रकिरणद्युति, मयूखमाली, विश्व, मार्तण्ड, चण्डकिरण, सदागति भास्वान्, सप्ताश्व, सुखोदय, देवदेव, अहिर्बुध्य, धामनिधि, अनुत्तम, तप, ब्रह्ममयालोक, लोकपाल, अपाम्पति, जगत्यबोधक, देव, जगद्वीप, जगत्, अर्क, निश्रेयस पर, कारण, श्रेयसापर, इन प्रभावी, पुण्य, पतंग, पतंगेश्वर मनोवाञ्छितदाता दृश्फलप्रद अदृष्टफलमद, मह, महकर, हंस, हरिदश्य, हुताशन, मंगल्य, मंगल, मेध्य, ध्रुव, धर्मप्रबोधन, भव, सम्भावित, भाव, भूतभव्य, भवात्मक, दुर्गम, दुर्गविहार, हरनेत्र, श्यीमय, त्रैलोक्यतिलक तीर्थ, तरणि, सर्वतोमुख, तेजोराशि, सुनिर्वाण, विश्वेश, शाश्वत, धाम, कल्प, कल्पानल, काल, कालचक्र, क्रतुप्रिय, भूषण, मरुत्, सूर्य, मणिरत्न, सुलोचन, त्वष्टा, विष्टर, विष्व, सत्कर्मसाक्षी, असत्कर्मसाक्षी, सविता, सहस्राक्ष, प्रजापाल, अधोक्षज, ब्रह्मा, वासरारम्भ, रक्तवर्ण, महाद्युति, शुक्र, मध्यन्दिन, रुद्र, श्याम, विष्णु दिनान्त को हम नमस्कार करते हैं। इन १०८ नामों से सूर्य को नमन करने के बाद मैं १०८ की श्री से भूषित देवसदनम् के सूर्य श्री महाराज जी को प्रणाम करता हूँ।

अग्नि की सात जिह्राओं को तृप्त करने के लिये सामप्रियाँ भी सात रखी जाती हैं। १. सुगन्ध (अगर तगर चन्दनादि का चूर्ण)। २. गुड़़ (शर्करा)। ३. गोघृत (स्नेह)। ४. समिध् (शुष्क काष्ट)। ५. चावल । ६. यव । ७. काला तिल। ये सामग्रियाँ सात उपलब्धियों की प्रतीक हैं। सुगन्ध =यश ।गुड़:= मिठास, सुख। गोघृत = स्नेह, प्रेम ।समिध्= शुष्कता, दुःख ।चावल = सत्वगुण । यव = रजोगुण । कालातिल= तमोगुण ।हवन में ये सात साममियाँ सुख दुःख स्नेह यश सत् रज एवं तम की द्योतक हैं। इन सातों में सब हैं। अतः इन सातों के माध्यम से अग्नि को सब कुछ अर्पित किया जाता है। सूर्य परम ज्ञान, विशुद्ध बुद्धि, तेज, प्रज्ञा, धन, धान्य, सुख एवं पुत्र का दाता है। भगवान् सूर्य गर्भ के कारक हैं, जन्म के कारक हैं, मृत्यु के कारक हैं। परमदेव सूर्य को मेरा प्रणाम ।

हवन = समर्पण = अपना सर्वस्व न्यौछावर करना। यज्ञ में देना ही देना है, लेना कुछ नहीं, माँगना कुछ नहीं मिलता तो प्रारब्ध से है, मिलता है भगवत्कृपा से देने में आनन्द है। देने से आनन्द न मिले तो देना किस काम का ? देना = त्याग = आनन्द हवन का यही सूत्र है। अतः हवन आनन्द है मोक्ष। गर्भ की अग्नि में हवन किया जाता है। गर्भ = अग्नि का वासस्थान। गृ सेचने + भन्= गर्भ, हवन
जिसे सींचा जाता है, वह गर्भ है। सूर्य को तर्पण देते हैं, जल से सींचते हैं। इसलिये सूर्य गर्भ है। इस गर्भ में दिव्याग्नि रहती है। उदर को जल से सींचते हैं। उदर गर्भ है। इस गर्भ में जठराग्नि रही है। स्त्री के गर्भाशय को पुरुष अपने शुक्र से सींचता है। इसमें गर्भाग्नि रहती है। सेचन यज्ञ है। गर्भ में कामाग्नि रहती है। जठराग्नि, कामाग्नि दिव्याग्नि- ये तीन अग्नियाँ हैं। जठराग्नि अन्न और जल से शान्त होती, कामाग्नि वीर्यदान से तृप्त होती है। दिव्याग्नि अर्घ्य एवं स्तुति से प्रसन्न होती है। इन तीनों अग्नियों को सावधानीपूर्वक तृप्त/तुष्ट करने में आनन्द है। आनन्द ब्रह्म है, मोक्ष है। आनन्दाय नमः । गर्भाधान यज्ञ वेदविहित धर्म है। मन्त्रहीन गर्भाधान निन्द्य यज्ञ है। समन्व गर्भाधान प्रशस्त यज्ञ है। एकादश भाव के सन्दर्भ में मै वैदिक गर्भयश का वर्णन करता हूँ।
(यजुर्वेद ३४/१६)

अन्वय- इडायाः पृथिव्याः नाभा अधि पदे हव्याय वोढवे अग्ने । जातवेदः वयं निधीमहि ।

 इल् (तुदा. पर. इलति जाना सोना लेटना) + अच्. लस्य डत्वम् +टाप् = इडा = लेटी हुई, विस्तर पर पड़ी हुई।

 पृथ् (चुरा० एभ० पर्थयति-ते फैलाना विस्तृत करना) + वन् + ङीष्

 पृथ्वी= फैली हुई विस्तारित विस्तीर्ण।

 नाभा अधि पदे = नाभि के नीचे के स्थान में, उरू क्षेत्र में, उपस्थ / गुह्य स्थान में।

 हव्याय वोढवे = शुक्ररूप हवि को वहन करने के लिये।

 अग्ने= हे अग्नि देव ।

 जातवेदः वयम् = उत्पन्न / अनुभूत ज्ञान से युक्त हम, संज्ञान में स्थित हुआ मैं।

निधीमहि =स्थापित करते हैं, स्थापित करता हूँ। 

  मन्त्रार्थ- लेटी हुई स्त्री की सुविस्तृत जांघों के स्थान में अप्रमत्त हुआ संज्ञानस्य में शुक्ररूप हवि को देते हुए गर्भ की स्थापना करता हूँ। हे गर्भस्थ काम रूप अग्नि आप इसे स्वीकार करें। 

इस मंत्र को बढ़ते हुए, मन में उच्चारते हुए ध्यान करते हुए पुरुष गर्भ क्षेत्र का पेचन करता है। पुनः यह मन्त्र है-

 "सिनीवालि पृथुष्टके या देवानामसि स्वसा । जुषस्व हव्यमाहुतं प्रजां देवि दिदिति नः ॥" 
( यजुर्वेद ३४/१० अथर्व. ७ / ४८/१)

 सिनीवालि =हे सिनीवाली । अमावस्या में चन्द्रमा दिखालाई पड़े तो उस अमावस्या वाली रात को सिनीवाली कहते हैं। सिनीवाली का अर्थ हुआ घोर अन्धकार में प्रकाश की किरण को दिखलाती निराशा में आशा का संचार करती- आशा की देवी हे सुख देने वाली सुन्दरी ! 

 पृथुष्टके = हे पृथुष्टुका । वह स्त्री जो अधिक स्तुति/प्रशंसा से प्रसन्न होती है, अत्यधिक प्रेमभावपूर्ण वाणी से वश में होती है। बिखरे हुए फैले हुए, दीर्घातिदीर्घ भने केशों वाली: अन्यकार सदृश काले केशों वाली: प्रफुल्लित मन एवं सुविकसित यौवन वाली देवी ।

या देवानाम् स्वसा असि = जो कि देवताओं की बहन है वा जिसके भाई विद्वान हैं अर्थात् तू भी विदुषी/देवी है, दिव्य गुणों से युक्त एवं सुखदात्री है। 

आहुतम् हव्यम् जुषस्व =अच्छी तरह से हवन की गई आहुतियों का प्रेमपूर्वक सेवन करो। गर्भाधान हेतु गर्भाशय रूप हवन कुण्ड में डाले गये हव्य रूप वीर्य को प्रीतिपूर्वक धारण करो। यह वीर्य गर्भ से बाहर निकलने न पाये। इसके लिये तू उठो न, विस्तर पर पड़ी रहो। 

 देविन: प्रजाम् दिदिड्डि = हे देवी ! हमें हमारे कुल को उत्तम अपत्य / प्रजा/ सन्तान / पुत्र प्रदान करो। प्र = प्रकृष्ट/ उत्तम। जा = अपत्य (निघण्टु २/२ ) । प्रजा का अर्थ यहाँ उत्तम गुणों वाली सन्तान से है। दिश/ दिह धातु का लोट् मध्यम पुरुष एक वचन रूप दिदिट्टि है। दिश देना, पारितोषिक देना। दि सुन्दर करना, संस्कार देना। 

【 सिनीवाली-कुहू= देवपत्न्यौ (निरुक्त ११/३/३१) अतएव देवपत्नी =विद्वान् पुरुष की पत्नी= सिनीवाली 'सिनमन्नं भवति सिनाति भूतानि निरुक्त वाक्य से अन्नदात्री/पर में भोजन बना कर खिलाने वाली गृहस्थ की भार्या ही सिनीवाली है पुनः सिनम् =षिञ् बन्धने से सिनीवाली यह स्त्री है जो पुरुष को अपने प्रेम पाश से बांधती है, प्रेम करती वा चाहती है।】

आगे के चार मन्त्रों में धाता, त्वष्टा, सविता एवं प्रजापति से गर्भाधान को सफल बनाने की प्रार्थना की गई है।

धातः श्रेष्ठेन रूपेणास्या नार्या गवीन्योः । पुमांसं पुत्रमा धेहि दशमे मासि सूतवे ॥ १० ॥ 
त्वष्टः श्रेष्ठेन रूपेणास्या नार्या गवीन्योः । पुमांसं पुत्रमा धेहि दशमे मासि सूतवे ॥ ११ ॥
 सवितः श्रेष्ठेन रूपेणास्या नार्या गवीन्योः । पुमांसं पुत्रमा धेहि दशमे मासि सूतवे ॥ १२ ॥
 प्रजापते श्रेष्ठेन रूपेणास्या नार्या गवीन्योः ।
 पुमांसं पुत्रमा धेहि दशमे मासि सूतवे ॥ १३ ॥

मन्त्रार्थ-धातः । त्वष्टः । सवितः । प्रजापते । श्रेष्ठेन रूपेण अस्याः नार्याः गवीन्योः पुमांसम् पुत्रम् आधेहि, दशमे मासि सूतवे । 

हे गर्भ के मूलभूत धारक धातादेव । हे गर्भ को सुन्दर रूपाकृति प्रदान करने वाले त्वष्टा देव । हे गर्भ को उत्पन्न करने वाले सविता देव । हे उत्पन्न गर्भ के रक्षक पालक प्रजापति देव । अच्छी तरह से इस नारी की दोनो डिम्बनलिकाओं में पुमान् पुत्र का आधान करो, जिससे वह दसवें महीने में गर्भ से बाहर निकले।

 इन मन्त्रों में 'गवीन्योः' पद आया है। यह क्या है ? इसे अच्छी तरह से समझना है। स्त्री के गर्भाशय में दो डिम्बवाहिनी नलिकाएं होती हैं। इन्हें गवीनी कहा है। गम् + नीञ्- गवीनी =अण्डाणु लेकर चलने वाली।

 चित्र में इनकी स्थिति यहाँ है-(चित्र नीचे संलग्न है)

गवीनी = गर्भाशय नलिका = डिम्ब वाहिनी फैलोपियन ट्यूब स्त्री के आन्तरिक जननांग (पश्च पक्ष) का चित्र । (काट) गर्भाशय, योनि, अण्डाशय नलिका ।

गवीनी नलिकाएँ एक युग्मी अंग हैं। ये गर्भाशय के पार्श्व में उसके चौड़े स्नायु के ऊपरी भाग में स्थित होते हैं। ये अण्डाणु को अण्डाशय से गर्भाशय तक पहुँचाते हैं। गवोनी नलिका में दो छिद्र होते हैं। इनमें से एक छिद्र गर्भाशयी कोटर और दूसरा छिद्र अंडाशय के समीप पर्युदर्या कोटर में खुलता है। अण्डाशय के साथ सम्बन्धित गर्भाशयी नलिका का सिरा एक कीप की भांति मुड़ा हुआ होता है तथा गर्भाशयी नलिका का अन्तिम छोर तथाकथित झालर के रूप में होता है। अण्डाशय से बाहर निकल कर अण्डाणु इन झालरों में से गुजरते हुए गर्भाशय में आता है। गर्भाशयी नलिका (गवीनी) में अण्डाणु तथा शुक्राणु के मिलन के परिणाम स्वरूप निषेचन होता है। निषेचित अण्डाणु विभाजित होना आरम्भ होता है तथा एक भ्रूण विकसित होता है। विकसित हो रहा यह भ्रूण गर्भाशयी नलिका (गवीनी) में से होते हुए गर्भाशय में आ जाता है। गर्भाशय में इसका पूर्ण विकास होता है। यहाँ से दसवें महीने यह योनिद्वार से होता हुआ बाहर आता जन्म लेता है।

गवीनीनलिका को अंग्रेजी में फैलोपियन ट्यूब कहते हैं। इसमें विकार आने से गर्भ नहीं ठहरता। इसके लिये देवों से प्रार्थना की गई है। आधुनिक युग में सत्यक्रिया से तत्संबन्धी विकार दूर किया जाता है। 

एक अन्य गर्भाधान मन्त्र इस प्रकार है-

"हिरण्ययी अरणी यं निर्मन्थतो अश्विना ।
 तं ते गर्भ हवामहे दशमे मासि सूतवे ॥" 
( ऋग्वेद १०/१८४/३)

अरणी = शमी की लकड़ी का टुकड़ा जिसके घर्षण से यज्ञ के अवसर पर अग्नि जलाई जाती है, आग उत्पन्न करने वाली लकड़ी, यज्ञाग्नि प्रज्ज्वलित करने के लिये लकड़ी की दो समिधाएँ। ऋ (गतौ) + अनि = अरणि = सूर्य, अग्नि । संकोच एवं प्रसार की गति से युक्त होने के कारण तथा परस्पर के घर्षण से अग्नि उत्पन्न करने से स्त्री-पुरुष के यौनांग भी अरणी हुए।

 निर्मन्यतः = मचते हुए, क्षुब्ध करते हुए, रगड़ से आग पैदा करते हुए घुमाते हुए, ऊपर-नीचे/ आगे-पीछे गति करते हुए, चोट पहुँचाते हुए, आहत करते हुए। [निर् + मन्थ् मन्यति ,मध्नाति विडोलने ] । 

अश्विना = वेग पूर्वक, शीघ्रता से।

 हिरण्ययी= चित्ताकर्षक, परमधन रूप। 

 हवामहे= हवन करते हैं. वीर्य की आहुति देते हैं। 

तं से गर्भम् = उस मेरे गर्भ को । 

यं = जो।

 दशमे मासि सूतवे = दसवें महीने में (उसे) उत्पन्न होने के लिये ।

मन्त्रार्थ- स्त्री का भग और पुरुष का शेफ ये दोनों हिरण्ययी अरणियां-पिताकर्षक समिक्षा के दो टुकड़े हैं। वेग से मथते हुए-मैथुन करते हुए इस गर्भ में हम वीर्य का आधान करते हैं, जिससे दसवें मास पुत्र उत्पन्न होवे। गर्भाधान कर्म एक प्राकृतिक यज्ञ है। ऋषियों ने इस यज्ञ को पवित्र भाव से मुक्त होकर करने के लिये कहा है। इस यज्ञ का अधिदेवता काम (अनंग) है; स्त्री यजमान है, होता पुरुष है। इस यज्ञ का फल है-पुत्र प्राप्ति। यदि यह फल नहीं मिला तो यज्ञ व्यर्थ है। हवन कुण्ड से बाहर जो आहुति गिरती है, वह व्यर्थ जाती है। प्रज्ज्वलित अग्नि में आहुति पड़ने से अग्नि प्रदीप्त होती है। स्त्री को गर्भाग्नि में वीर्य की आहुति पड़ने से लाभ होता है। आज कोई इस लाभ के लिये लालायित है तो कोई इससे बचना चाहता है। वह योनि का उपयोग करता है किन्तु उसमें आहुति नहीं डालता। यह काल का खेल है। इसे कौन जान सकता है ? मैं इस महायज्ञ का समर्थक एवं कर्ता हूँ, वौर्य को नष्ट करने, व्यर्थ व्यय करने का विरोधी हूँ। वीर्य स्वयं विष्णु है। विष्णु को अपने में से क्यों बाहर फेंका जाय ? इस विष्णु वीर्य से विष्णु का यजन करना ही उचित है। यह आर्ष धारा है। इस धारा में स्नान करने वालों को मेरा नमस्कार ।

प्रकृति हिरण्यगर्भा है। यह समस्त जीवों को अपने अक्षय गर्भ में धारण करती है। इन जीवों का पिता द्युलोक है। भूलोक और लोक हमारे माता पिता हैं। इन्हें हमारा प्रणाम ।
√★★सूर्य को भगवान् कहते हैं ,
   【भ= भाति, ग = गच्छति। 】
       जो चमकता है जो चलता है अथवा जिसके प्रकाश में चमक एवं गति होती है, वह भग है। जो भग से युक्त है, वह भगवान् है। वाक्य है-

 "भग एव भगवाँ २ अस्तु
 देवास्तेन वयं भगवन्तः स्याम ।"
(यजु. ३४ । ३८ ।, - अथर्व. ३ | १६ | ५ | ,- ऋक् ७ । ४१ । ५।)

√★भग = ज्योति। ज्योति सम्मुख मैं प्रार्थना करता हूँ-

"भग प्रणेतर् भग सत्यराधो
भगेमां धियमुदवा ददन्न ।
 भग. प्र जो जनय गोभिरश्वैर्
 भग प्र नृभिर् नृवन्तः स्याम ॥"
( यजु. ३४ । ३६ ।, - अथर्व. ३ । १६ । ३ ।, - ऋक्. ७ । ४१ । ३ ।)

√★भग प्र. नेतः = हे भग । तू मार्ग दर्शक है।

√★ भग सत्य राधः = हे भग! तू शाश्वत धन है।

 √★भग इमाम् वियम् उत् अव =हे ज्योति हमारी इस बुद्धि को तू दीप्त कर कर्म में लगा / बढ़ा। ! 

√★आ ददत् नः (अव) = लक्ष्मी को प्रदान करते हुए तू हमारी रक्षा कर, हमें सन्तुष्ट कर। [आ=लक्ष्मी]

√★भग नः प्रजनय = हे ज्योति । हमें प्रजनन क्षमता प्रदान कर।

√★भग गोभिः अश्वैः प्रनृभिः नृवन्तः स्याम = हे ज्योति । मैं गौओं (दुग्धादि पोषक पदार्थों), अश्वों (चार पहिया वाले वाहनों), सेवकगणों के साथ-साथ (से युक्त होकर) परिवार वाले (पुत्र-पौत्रादि से युक्त) होऊं ।

√★देने वाले अनेक हैं, सब से अधिक देने वाला एक है। यह एक ही सूर्य है इसे इन्द्र कहते हैं। इन्द्र आँख है, इन्द्र ज्योति है, इन्द्र अग्नि है। जो इससे मांगता है, उसे अन्य किसी से माँगने की आवश्यकता नहीं रहती। फिर इसी ज्योति से क्यों न माँगा जाय ? क्योंकि यह भूरिदा है, भूरिधा है। 
     मन्त्र है...

"भूरिदा भूरि देहि नो
 मा दभ्रं भूर्या भर
 भूरि धेदिन्द्रदित्सति ॥" 
(ऋग्वेद ४ । ३२ । २०)

√★भूरि धा इत् इन्द्र दित्सति = हे इन्द्र । तू बहुत रखते हो, देने की इच्छा भी रखते हो। भूरिदा भूरि देहि नः = बहुत देने वाले हो हमें खूब दो। मा दभ्रम् = कमनहीं। भूरि आ भर= अमित दान से तृप्त करो।

[भूः + इव= भूर् इव =भूरिव =भूरि ,वकारस्य लोपः भूरि का अर्थ है, भूमि/पृथिवी जैसा  । विस्तृत मात्रा में अधिक अर्थात् बहुत । भूरि= पृथिवी सदृश विपुल दाता, सर्वदाता, अमित अतिशय ॥]

√★मार्गशीर्ष अस्या की रात में मैंने भूरिदा भूरिया अग्नि को हविष्यान्न की आहुति दी। उन्होंने इसे हँसते हुए स्वीकार किया। इसलिये इन्द्राय नमः ।

√★ ब्राह्मण मुख अग्नि है। अग्नि का उपासक ब्राह्मण है। अग्नि =ब्राह्मण। पार्थिव अग्नि में वा ब्राह्मण के मुख में हवन करने का फल एक ही है। यह तृप्तिदाता है। यह तृप्त करने वाले को तुष्ट करता है। यह सब प्रकार के धनों को देता है। मन्त्रोऽयम्- 

"सं समिद् युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ।
 इडस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर ।"
( अथर्व ६ । ६३ । ४, यजु. १५ । ३० ऋ. १० | १९१ । १ ।)

√★समिद् (सम्+इ गती)= सर्वत्रगतिशील, सर्वव्यापी। 

√★सम्-युवसे (सम्+ यु मिश्रणे अमिश्रणे वा) = सबको अपने में मिलाने वाले जलाकर भस्म बना देने वाले, अग्निमय करने वाले, द्रव्य के अवयवों को उनसे पृथक् करने वाले अर्थात् अति सामर्थ्यवान् ।

√★वृषन् (वृष् वर्षणे) = प्रकाश एवं ताप की वर्षा करते हुए ज्ञान एवं तेज प्रदान करने वाले।

√★विश्वानि अर्यः आ = सम्पूर्ण श्रेष्ठ लक्ष्मी स्वरूप, सर्वशुभ धन ।
 [अव् + ड + टाप् = आ = लक्ष्मी, चञ्चला, अव् गतौ ! ]

√★इङः पदे = वाणी की गति में, जिह्वा में स्थित अमोद्य वाक् रूप ।

 √★समिधि-असे = ईधन समिधादि में विद्यमान । 

√★सः = वह तू सूर्यरूप ।

√★ अग्ने = हे अग्नि !

√★वसूनि नः आ भर = सब प्रकार के धनों से हमें परिपूर्ण कर।

√●●मन्त्रार्थ = हे सर्वव्यापी, सबको परस्पर मिलाने एवं पृथक् करने वाले, प्रकाश और ताप को देने वाले, वाणी में निवास करने वाले, समिधादि में गुप्त रूप से रहने वाले, सम्पूर्ण श्रेष्ठैश्वर्यो के विग्रह, सूर्य रूप अग्नि देव ! आप हमें सब धनों (लौकिक अलौकिक सम्पत्तियों) से तृप्त करें। 

√●अग्नि से बड़ा जैसे कोई दाता नहीं है, वैसे ही उससे बढ़कर कोई रक्षक नहीं है। अपनी रक्षा के लिए मैं अग्नि की गुहार लगाता हूँ। 

"पाहि नो अग्ने रक्षसः 
पाहि धूर्तेरराव्णः |
 पाहि रीषत उत वा जिघांसतो
 बृहद्भानो यविष्ट्य ॥"
( ऋग्वेद १ । ३६ । १५ ।)

√◆हे अग्ने । आप दुष्टविचार वालों (राक्षसों से हमारी रक्षा करें। आप ठगों (भूतों) से मेरी रक्षा करें। आप न देने वाले उधार दिये हुए धन को न देने/ वापस करने वाले (राव्णों) से हमारी रक्षा करें। आप हिंसकों (रोषतों से हमारी रक्षा करें। आप मारने की इच्छा रखने वाले विद्यांसों से हमारी रक्षा करें। हे बृहद्भानो (महान् चमक वाले) । हे यविष्ठ्य (सब से छोटे, अणुरूप, अन्तर्यामी) । आप मेरी भलीभाँति रक्षा करें।

√●【धूर्ति = हिंसा का स्वभाव, दुष्टता शठता। धूर्ति →धूर्तेः शाष्ठ्यात् = दुष्टतापूर्ण व्यवहार से ।अराव्णः= अदातुः = जो लेता है किन्तु देना नहीं चाहता, ऐसे लोगों से ऋण लेकर उसे वापस न करने वालों से ।नञ् + रा दाने + व निप् = अरावणः। रिष् हिंसायाम्→रिषतः = हिंसकात् हत्यारों से, पापियों से। जिघांसतः = हन्तुमिच्छत मारने की इच्छा वाले से क्षतिकरों से ।रक्ष पालने + असुन् रक्षस् → रक्षसः = रक्षा करने के साधनों से राक्षसात्। रक्षस्= मच्छर, रोग के कीटणु विषैले दाँतों वाले प्राणी पाप प्रवृत्ति के लोग अमर्यादित वाममार्गी, लोलुप लम्पट वलात्कारी, डकैत अपहर्ता, अनाचारी, तामसी प्रवृत्ति वाला। रक्षसः = कुसित लोगों से।】

√●हमारा रक्षक सर्वभक्षक अग्नि बृहद्भानु एवं यविष्ठ्य है। यह बृहत्तम एवं अणुतम होने से सर्वत्र सर्वदा है। इस से अधिक सुलभ रक्षा का साधन क्या हो सकता है ? अग्नये नमः ।

√● जिसमें भग है, वह भगवान् है। जहाँ भग है, वहाँ भगवान् है। जब तक भग है, तब तक भगवान् है। जहाँ तक भग है, वहाँ तक भगवान् है। भग से भगवान् है, भगवान से भग है। आकाश में भग है, आकाश भगवान् है। आकाश में ज्योतिर्मय पिण्ड हैं। इनमें भग है वा ये भगरूप हैं। इसलिये ये सब भगवान् हैं। इन सब भगवानों का आश्रय होने से शून्य को महाभगवान् कहते हैं। भगवान् अनेक हैं, महाभगवान् एक है। अनेक भगवान् ससीम हैं। एक महाभगवान् शून्य ही असीम अपार अनादि अनन्त अजन्मा अरूप अनूप है। 

√●एक-एक तारा (सूर्य) एक-एक भगवान् है। प्रत्येक भगवान् अपने अपने विश्व (सौर परिवार) का स्वामी है। इस दिव्य भगवान् सूर्य से अनेकों पार्थिव भगवान् हुए । पृथ्वी चन्द्रमा भौम बुध गुरु शुक्र शनि_आदि पार्थिव भगवान हैं। इन्हें जो भगवता प्राप्त हुई है, उसका दाता सूर्य है। पृथिवी जीव भगवान् है। इस जीव भगवान् से चर-अचर भगवान् उद्भूत हुए हैं। सभी प्राणी भगवान् । मनुष्य पशु खग सर्प कीट जलचर आदि भगवान् हैं। पर्वत से धूलकण तक तथा हाथी से चींटी तक सब भगवान् हैं। तरु से तृण पर्यन्त सस्य भगवान् है मानव देह लघु ब्रह्माण्ड है। इसमें नेक सृष्टियाँ हैं। इनमें अनेक जीव है, जो कि एक-एक कोशीय से लेकर बहुकोशीय हैं। इनके लिये यहशरीर पृथिवी है। ये सब इससे उत्पन्न होकर इसी में मिलते (मरते) रहते हैं, इसी से पलते हैं। इन सीमित भगवानों की संख्या का पार नहीं पाया जा सकता। जैसे पृथ्वी पर उद्भिज प्राणी हैं, वैसे शरीर पर स्वेदज जीव रहते हैं। इन जीवों में भी जीव रहते हैं। सृष्टि में सृष्टि सृष्टि के बाहर सृष्टि, सृष्टि ही सृष्टि है। ये सभी सृष्टियाँ भगवान् हैं। इन सब में प्राण है। प्राण सूर्य से है। इसलिये सूर्य इन सब सृष्टियों में प्राणरूप से विद्यमान है। सूर्य की इस प्राण रूप भगवत्ता से ये सब भगवान् हैं। भगवान् की संतति भगवान् है। लघु से लघुतर तथा लघुतम सृष्टि का अन्त नहीं है। महत् से महत्तर तथा महत्तम सृष्टि का पार नहीं। इन अगण्य सृष्टियों के भगवान् मिथ्या हैं। मिथ्या भगवानों की सत्यता मैं देखता हूँ।

√●हर एक विश्व में केवल एक सत्य भगवान् है। सूर्य सत्य भगवान् है। भगवान् द्विखण्डात्मक है। इन दो खण्डों को एक दूसरे से पृथक् नहीं समझना / जानना है। भगवान् अखण्ड है। इस अखण्ड तत्व में मृदु-कठोर / चर-अचर/ स्त्री-पुरुष गुण है। इसलिये यह द्वैध है। इस द्वैधता के कारण उसे लक्ष्मी नारायण/ सीताराम / राधाकृष्ण गौरीशंकर कहते हैं। इसे स्पष्टता से यों समझना बहाये। सूर्य एक सत्य भगवान् है। इस भगवान् प्रकाश एवं उष्मा/ दीप्ति एवं ताप अपृथक् होकर दो प्रभाव वाले हैं। प्रकाश से देखा जाता है, ज्ञान होता है। उष्मा से जलन होती है। दीप्ति वा प्रकाश सौम्य भाग है। उष्मा वा ताप कृच्छ्र भाग है। सौम्य भाग स्त्री है। कुछ भाग पुरुष । दीप्ति = लक्ष्मी/सीता/राधा/गौरी ताप = नारायण / राम / कृष्ण / शंकर सूर्य की दीप्ति एवं ताप सर्व अथक हैं इसे हम इस प्रकार कह सकते हैं कि लक्ष्मीनारायण / सीताराम / राधाकृष्ण/ गौरीशंकर (अर्धनारीश्वर) परस्पर अपृथक् हैं। उष्मा प्रकाश है, प्रकाश उष्मा है का अर्थ है- शंकर पार्वती है, पार्वती शंकर है; राम जानकी है, जानकी राम है, कृष्ण रुक्मिणी है, रुक्मिणी कृष्ण है; विष्णु लक्ष्मी है, लक्ष्मी विष्णु है। इस प्रकार भगवान् के द्वैधीभाव की उपासना लोक में न जाने कब से होती चली आ रही है। यह द्वैत वास्तव में अद्वितीय है। भगवान् ने मनुष्य को बनाया है, मनुष्य ने उस भगवान् को बनाया है-लाकर खड़ा किया है। जैसा मनुष्य है, वैसा उसका भगवान् है। सबके अपने अपने भगवान है। आस्था एवं विश्वास की नींव पर ये सब इनके भगवान् टिके हैं।

√●●अपनी ऊहा से लोगों ने भगवान गढ़ा है, मूर्तरूप दिया है, निराकार-साकार, काला गोरा, अकेला स्त्रीवाला, निकट दूर का, भीतर-बाहर का ऐसा-वैसा आदि कहा/ माना है। मनुष्य ने अपनी वासना का आरोप भगवान् में किया है। जातीय प्रभाव, पारिवारिक संस्कार भौगोलिक परिवेश सामाजिक परिस्थिति राष्ट्रीय चेतना भौतिक अवस्था (उन्नति-अवनति) एवं व्यक्तिगत अनुभव से मनुष्य ने भगवान् का निर्माण किया है। ऐसा उसने स्वार्थ में किया है। उसे भगवान् की आवश्यकता है। साहित्य कला शिल्प प्रथा उत्सव, कर्मकाण्ड सब कुछ उनके इन भगवानों से ओतप्रोत है। मनुष्य भगवान् को मानता है, अतएव भगवान् है। मनुष्य भगवान् को अस्वीकारता है, इसलिये भी भगवान् है। मनुष्य को भगवान् से अपेक्षाएँ हैं। इस कारण वह भगवान् को बुलाता है, खोजता है, पकड़ लेने का दावा करता है। मनुष्य भगवान् को ले कर झगड़ता है। वह भगवान् की ओर भागता है, भगवान् उसकी ओर भागता है। यह खेल कब से चल रहा है ? क्या पता ! इस खेल का अन्त नहीं है। स्वार्थी मनुष्य की अनेकों अपेक्षाओं को पूरा करने के भय से भगवान् छिपा हुआ है। मनुष्य भगवान् को मूर्ख बनाना चाहता है, भगवान् ऐसे मनुष्यों को मूर्ख बना देता है। अस्वार्थी निश्छल प्रेमी जनों के पास भगवान् प्रकट रहता है। ऐसे अद्भुत भगवान् को मैं अपने मन बुद्धि से देखता हूँ। भगवते नमः ।
★★★★सूर्य ग्रह ★★★★

√●श्रीमद्भागवत पञ्चमस्कन्ध अध्याय २० का संबंध सूर्य से है। द्युलोक तथा भूलोक के बीच की संधि का नाम अन्तरिक्ष है-'अन्तरिक्षं तदुभयसंधितम् ।' इस संधि के मध्यभाग में स्थित भगवान् सूर्य तीनों लोकों को तपाते और प्रकाशित करते हैं...

 "यन्मध्यगतो भगवांस्तपताम्पतिस्तपन आतपेन त्रिलोकी प्रतपत्यवभासयत्यात्मभासा ।"

√● वे भगवान् सूर्य उत्तरायण, दक्षिणायन, विषुवत् नाम वाली क्रमशः मन्द, शीघ्र, सम गतियों से चलते हुए मकरादि राशियों में ऊंचे, नीचे, सम स्थानों में क्रमपूर्वक जा कर दिन को बड़ा, छोटा, समान करते रहते ...

"स एष उदगयन दक्षिणायन वैषुवत संज्ञाति मान्द्य शैघ्य समान अभिगतिष्टि आरोहरावरोहण समान स्थानेषु यथासवनमभिपद्यमानो मकरादि राशिष्वहोरात्राणि दीर्घ ह्रस्व समाननानि विद्यते।"

√●उत्तरायण का सूर्य तपन कारक है।

 दक्षिणायन का सूर्य शीतकारक है।

√●जब सूर्य भगवान् मेष या तुला राशि पर आते हैं, तब दिन एवं रात समान होते हैं...

 "यदा मेषतुलयोर्वर्वते तदाहोरात्राणि समानानि भवन्ति।" 

√●जब वृषभादि पांच राशियों में चलते हैं तब प्रतिमास रात्रियों में एक-एक घटी की कमी होती जाती है तथा उसी अनुपात में दिन बढ़ते जाते हैं ...

"यदा वृषभादिषु पञ्चसु च राशिषु चरति सहान्येव वर्धने हसति च मासि मास्येकैका घटिका रात्रिषु।"

√●जब वृश्चिकादि पाँच राशियों भगवान् सूर्य चलते हैं तब दिन और रात्रियों में इसके विपरीत (रात्रियों में एक-एक घटी की वृद्धि तथा दिनों में एक-एक घटी का ह्रास) परिवर्तन होता है...

"यदा वृश्चिकादिषु पञ्चसु वर्तते तदाहोरात्राणि विपर्याणि भवन्ति।"

√●इस प्रकार दक्षिणायण आरंभ होते तक दिन बढ़ते रहते हैं तथा उत्तरायण लगने तक रात्रियाँ बढ़ती रहती हैं...

 "यावद्दक्षिणायन महानि वर्धन्ते यावदुदगयन रात्रयः ।"

√●सूर्य जिस मार्ग पर चलता हुआ प्रतीत होता है उसे राशि चक्र / नक्षत्र वीथी कहते हैं। इसमें २७ नक्षत्रों की २७ संधियों होती है अथवा, १२ राशियों की १२ संधियों होती है। इसमें नक्षत्रों एवं राशियों की ३ गण्डमूल संधियां होती है। इस संधियों को गाँठ कहते हैं। दो खण्डों का जोड़ गांठ होता है। इसे पर्व कहते हैं (पर्व = ग्रन्थिं)। पर्व युक्त होने से राशिपरिपथ को पर्वत भी कहते हैं। श्री मद् भागवत महापुराण में इस परिपथ को मानसोत्तर पर्वत कहते हैं।

√● मानसोत्तर = मान + सोत्तर सोत्तर उत्तर उत्तर = उत् + तर ।

√●यह पथ ऊपर आकाश में होने से उतू (श्रेष्ठ) है। इस पथ को सूर्यादि पह पार कर करते हैं। अतः यह तर (पार्य) है। श्रेष्ठता एवं पार्यता से युक्त होने के कारण यह पथ सोत्तर है। इस पथ को एक निश्चित माप है। जिससे यह मान युक्त है। इस प्रकार इस का नाम मानसोत्तर पर्वत पड़ा है। सूर्य इस पथ पर एक अहोरात्र में चल लेता है। यह परिक्रमा मार्ग नौ करोड़ इक्यावन लाख योजन 

 "एवं नव कोटय एक पञ्चाशल्लक्षाणि योजनानां मानसोत्तरगिरि परिवर्तनस्योपदिशन्ति ।"

√●उस मेरु पर्वत के पूर्व की ओर इन्द्र की देवधानी, दक्षिण में यमराज की संयमनी, पश्चिम में वरुण की निम्लोचनी और उत्तर में चन्द्रमा की विभावरी नाम की पुरियों है...

 "तस्मिन्नन्द्री पुरी पूर्वस्मान्मेरोदेवधानी नाम दक्षिणतो याम्यां संयमनी नाम पश्चाद्वारुणी निम्लोचनी नाम उत्तरतः सीम्या विभावरी नाम।" 

√●इन पुरियों में मेरु के चारों ओर समय-समय पर सूर्योदय, मध्याह, सायंकाल एवं अर्धरात्रि होती रहती. है, इन्हीं के कारण सभी जीवों में प्रवृत्ति निवृत्ति है...

 "तापूदयमध्याहास्तमर्यानिशीथानीति भूतानां प्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्तानि समय विशेषेण मेरोश्चतुर्दिशम्।"

√●एक अहोरात्र वा ६० घटी में सूर्य द्वारा तय की गयी दूरी = ९,५१००००० योजन।

√●इसलिये, १५ घटी में सूर्य द्वारा तय की गई दूरी 
=९,५१,००००० X १५/६० = ९,५१,००००० X१/४ = २,३७,७५००० योजन।

√●सूर्य देव जब इन्द्रपुरी से यमपुरी (पूर्वदिशा से दक्षिण दिशा) को चलते हैं, तब १५ घटी में सवा दो करोड़ (२,२५०००००) तथा साढ़े बारह लाख (१२५००००) योजन से अधिक दूरी चलते हैं

''यदा चैन्द्रयाः पुर्याः प्रचलते पञ्चदशघटिकाभिः याम्यां सपाद कोटिद्वयं (२,२५,००,०००) योजनानां सार्घद्वादश लक्षाणि (१२,५०,०००) साधिकानि (००,२५,०००) चोपयाति ।'

 २,२५००००० + १२,५०००० + कुछ अधिक (अर्थात् ००,२५०००) = २३७७५००० योजन।

 √●इस प्रकार इन्द्र पुरी से यमपुरी तक की दूरी = २ करोड़ ३७ लाख ७५ हजार योजन। इतनी ही दूरी यमपुरी से वरुण पुरी तक, वरुणपुरी से चन्द्रमा की पुरी तक तथा चन्द्रपुरी से इन्द्रपुरी तक की है।

 √●सूर्य का रथ (पिण्ड) एक मुहूर्त में ३४ लाख ८ सौ योजन चलता है। इस प्रकार यह वेदमय रथ चारों पुरियों का चक्कर लगाता रहता है...
"एवं मुहूर्तेन चतुखिंशल्लक्ष योजनान्यताधिकानि सौरो रथखपीयोऽसौ चतसृषु परिवर्तते पुरीष पुरीष।'

 【यहाँ १ मुहूर्त का मान २८ घटी से कुछ कम है =२७ .४०९८/४२५१ घटी】

√● सूर्य की गति २ हजार दो सौ योजन प्रति क्षण है। ये ९ करोड़ ५१ लाख योजन के परिपथ को इसी गति से तय करते हैं 

"लक्षोत्तरं सार्धनवकोटि योजन परिमण्डलं भूवलयस्य क्षणेन सगव्यत्युत्तरं द्विसहस्रयोजनानि  स भुड़्क्ते।"

【 यहाँ १ क्षण = ११/१६००४ मुहूर्त अथवा १ मुहूर्त = १५४५. ९/११ क्षण】

 √●सूर्य का देदीप्यमानपिण्ड ३६ लाख योजन की परिधि वाला है ।

 "रथनीडस्तु षट्त्रिंशाल्लक्षयोजनायतः ।"

√● सूर्यपिण्ड अरुणवर्ग का है। इसमें सप्तवर्णात्मक किरणें (हव/ अश्व/छन्द) है...

"यत्र हयाश्छन्दोनामान सप्तारुणयोजिता वहन्ति देवमादित्यम् ।"

√●उदीयमान एवं अस्तमान सूर्य अरुण वर्ण का होता है- पुरस्तात् सवितुररुणः पश्वाच्च नियुक्तः सौत्ये कर्मणि किलास्ते।'

 √●सूर्य के आगे ६० हजार सूक्ष्माकार बालखिल्यादि अषि निरनतर स्वास्तिवाचन करते रहते हैं ..

"तथ बालखिल्या ऋषयोष्ठपर्वमात्राः षष्टिहाणि पुरतः सूर्य सूक्तवाकाय नियुक्ताः संस्तुवन्ति।"

√●यहाँ ६० हजार बालखिल्यादि ऋषि = ६० की संख्या के अनन्त चक्र

यथा,
 ६० वर्ष = १ चक्र।
६० दिन = १ ऋतु।
६० घटि = १ अहोरात्र।
६० अंश = १ अर।
६० कला = १ अंश।
६० विकला = १ कला।
६० प्रतिकला =१ विकला।
६० तत्प्रतिविकला = १ प्रतिविकला।
१ घटि = ६० पल।
१ पल = ६० विपल।
१ विपल =६० अनुपल।
१ घंटा = ६० मिनट।
१ मिनट = ६० सेकेण्ड।
१अंगुल = ६० व्यंगुल।

 √●इस प्रकार प्रयोग में ६० के चक्र का कोई अन्त नहीं है। श्रीमद्भागवत में सूर्य सम्बन्धी जो कुछ ज्ञान है वह अत्यंत गूढ़ है सूक्ष्म है। अधिकारी भेद से यह प्रकट होता है। इसे समझना तथा समझाना दोनों कठिन है। इसके लिये मैं सूर्य से प्रार्थना करता हूँ ...

"हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
 तत् त्वं पूषन् अपावृण सत्यधर्माय दृष्टये ॥"
          -( ईशावास्योपनिषद् १५ )

√●जिस भाव में सूर्य रहता है, वह भाव ऊर्ध्व मुख कहलाता है। जिस भाव में चन्द्रादि मह रहते हैं वह भाव तिर्यङ्मुख होता है। जिस भाव में कोई यह नहीं रहता, वह अधोमुख होता है। इससे स्पष्ट है-सूर्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह है यह सुगन्धि (कीर्ति) का विस्तार करता है, यश और प्रतिष्ठा देता है, सम्मान बढ़ाता है, स्वाभिमान का द्योतन करता है।

√●दशमस्थ बलवान् सूर्य जातक को राजसत्ता से जोड़ता है।

 √●यह सूर्य न कभी अस्त होता है, न उदय होता है। उसको, जब छिपता है-ऐसा मानते हैं, तब वह दिन का अन्त करके अपने को दूसरी ओर दिखलाता है। इधर रात्रि करता है दूसरी ओर दिन। और जब उसको प्रातः काल उदय होता है ऐसा मानते हैं, तब वह रात का अन्त करके अपने को विरीत दिखलाता है। इधर दिन करता है और दूसरी ओर रात पर वह कभी छिपता या निकलता नहीं, वह कभी भी छिपता नहीं निकलता नहीं ।

 "स वा एष न कदाचनास्तमेति, नोदेति ।
 तं यदस्तमेतीति मन्यन्तेऽन्हमेव तदन्तमित्वाथात्मानं विपर्यस्यते ॥ रात्रीमेवावस्तात् कुरुतेऽहः परस्ताम् ।। 
अथ यदेनं प्रातरुदेतीतिमन्यन्ते ।
 रात्रेरेव तदन्तमित्वाथात्मानं विपर्यस्यते ॥ हरेवावस्तात् कुरुते रात्रिं परस्तात् ।
 स वा एष न कदाचन नि-प्रोचति न ह वै कदाचन नि-प्रोचति ॥" 
       ( ऐतरेय ब्राह्मण ३ । ४।६)

 √●इस महान् सत्य का साक्षात्कार ऋषियों ने किया था। आधुनिक वैज्ञानिक ऐतरेय ब्राह्मण के इस कथन को पढ़ कर हतप्रभ हो जाते हैं। हमें अपने पूर्वजों के इस ज्ञान पर गर्व है। मैं अपनी इस ज्ञान परम्परा के सामने श्रद्धा से सिर झुकाता हूँ।

√●●सूर्य के गुण धर्म-उप स्वभाव, क्षत्रियवर्ग, प्रौढ़वय, चतुरस आकार, ऊर्ध्वदृष्टि, कटु स्वाद, मोटा व रक्तस्याम रंग, देव स्थान, ताम्र खनिज, सत्व गुण, अग्नि तत्व, पुंलिंग, पित्त प्रकृति, मध्यम शरीर, शहद समान नेत्र, अल्पकेश, श्रेष्ठ रूप, शुष्क- स्थिर मति, अस्थि धातु, दक्षिण पार्श्व, आशीर्षमुख प्रभाव, दक्षिण नेत्र, पित्तरोग, मध्याह्नकाल वली, दशमभाववली, पशुभूमि, वनस्थान, पर्वत वास, ग्रीष्म अतु, पूर्वदिशा, अयन (६ मास) समय, काष्ठ चतुष्पद व्रण, पाप ग्रह, शिव-देवता, राजा पदवी, आत्म कारक, पितास्वरूप, गौरिक दीप्ति, वैद्यक शास्त्र, व्याकरण विद्या, कीर्तिविजय-सम्मान-पद-प्रदाता ।
भीतर से दृढ़ एवं ऊंचा वृक्ष वृक्ष-मूल।

√●मित्र ग्रह चन्द्र मंगल गुरु। 

√●सम ग्रह- बुध।

 √●शत्रु ग्रह शुक्र शनि राहु । 

√●एक पाद दृष्टि- ३ । १०, 

√●द्विपाद दृष्टि ५ ९, 

√●त्रिपाद दृष्टि- ४ । ८, 

√●चतुष्पाद (सम्पूर्ण) दृष्टि ७ । 

√●कारक भाव- १, ९, १०।

 √●हर्षस्थान- ९। 

√●भाग्योदय वर्ष २२। 

√●प्रभाव वर्ष ५० ।

 √●राशि चक्र परिभ्रमण वर्ष - १

 √●मध्यम राशि भ्रमण काल- १ मास।

 √●नक्षत्र चार समय- १३ दिन ।

 √●दीप्तांश-१५। 

√●दैनिक मध्यम गति- ५९', ८" ।

 √●शीघ्र गति - ६०, ४"।

 √●परमशीघ्र गति - ६१' । 

√●गोचर से निन्द्य स्थान- ४, ८, १२ । 

√●गोचर से पूज्य स्थान- १, २, ५, ७, ९ ।

√● गोचर से शुद्ध स्थान- ३, ६, १०, ११ ।

 √●बलवत्तम भाव १० ।

√● स्वगृह राशि-५ ।

√●अस्त राशि - ११ ।

 √●उच्च राशि एवं परमोच्चांश मेष १०°।

 √●नीच राशि एवं परमनीचाश- तुला १०°।

 √●मूलत्रिकोण राश्यंश सिंह २०° । 

√●मित्र राशि- १, ४, ८, ९, १२ । 

√●शत्रु राशि- २, ७, १०, ११ ।

 √●सम राशि- ३, ६ । 

√●स्वराशि-५ । 

√●चेष्टावली राशि- १०, ११, १२,९, २, ३ ।

 √●राशिचार फल- प्रवेशारंभ।

√●सूर्य मेष राशि के दशवें अंश में परमोच्च होता है इस कथन के सन्दर्भ में मैं महाभारत के एक उपाख्यान की चर्चा करता हूँ।

√●विश्वकर्मा की पुत्री का नाम संज्ञा संज्ञा का विवाह सूर्य से हुआ। एक बार संज्ञा ने अपने पिता के घर जाने के लिये अपने पति सूर्य से अनुमति माँगी। सूर्य ने संज्ञा को नैहर जाने से मना कर दिया। संज्ञा ने एक युक्ति सोची। उसने अपने ही सदृश एक स्त्री बना कर उसे सूर्य के पास छोड़ कर स्वयं पितृ-गृह चली गई। इस स्त्री का नाम छाया था। छाया से सूर्य के द्वारा शनि की उत्पत्ति हुई। दीर्घ अन्तराल के बाद संज्ञा पुनः सूर्य के पास आई। सूर्य ने उसे अस्वीकार कर दिया। तत्पश्चात् वह अश्विनी (घोड़ी) का रूप धारण कर लोक लोकान्तरों में विचरण करने लगी। सूर्य को जब मालूम हुआ कि वह मेरी ही पत्नी है तो उन्हों ने उसे पुनः स्वीकार किया। अश्विनी से सूर्य के द्वारा यमल संताने उत्पन्न हुई। इसे अश्विनीकुमार कहते हैं। एक का नाम नासत्य और दूसरेका दस्र है। ये दोनों साथ-साथ रहते हैं तथा ये देवताओं के वैद्य (चिकित्सक) है।

√●जो अश्विनी नाम की अश्विनीकुमारी की जननी वा सूर्य की पत्नी है, वही है अश्विनी नक्षत्र यह राशि चक्र का प्रथम नक्षत्र है। इस नक्षत्र में सूर्य उच्च का होता है। उच्च से तात्पर्य है, उत्साह सम्पन्न, वीर्यवान्। लोक में यह देखा जाता है कि व्यक्ति (पुरुष) स्त्री को प्राप्त कर उत्साहित होता है, उसका वीर्य चलायमान हो जाता है, उसमें बल वृद्धि होती है। अश्विनी नक्षत्र केतु का है। केतु का अर्थ है-किरण। ‘सूर्य केतवः' अथर्व वेद । निष्कर्षतः अश्विनी नक्षत्र में आते ही सूर्य किरणवान् (अधिक उष्णता वाला) हो जाता है। अश्विनी नक्षत्र का मान १३° अंश २०' कला है। सूर्य अश्विनी के १०° अंश में परमोच्च का है। अश्विनी का प्रथमपाद ३° २', द्वितीय पाद ६° ४०' तृतीय पाद १०° तथा चतुर्थपाद १३° २०' तक है। तीसरा पाद प्रौढ़ पाद है। (बाल युवा प्रौढ़ जरा पाद क्रमानुसार) प्रौढ़ता परिपक्वता का प्रतीक है। सूर्य का प्रौढ़ होना, ज्ञान का परिपाक है।

√●सूर्य की पत्नी संज्ञा है। इसका अर्थ है- सम्- ज्ञा अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञान पर सूर्य का आधिपत्य है। सूर्य की पत्नी का नाम छाया है। छाया प्रकाश का अभाव। इसका तात्पर्य है- अज्ञान पर सूर्य का वर्चस्व है।

√●सूर्य की पत्नी है- अश्विनी। अश्व = किरण, गति। अश्विनी किरणायुक्त, गतिशील। इसका = अर्थ हुआ- प्रकाशयुक्त एवं गतिशील जितने भी पिण्ड हैं वे सब सूर्य द्वारा शासित पोषित हैं।

√●सूर्य+ संज्ञा के योग से यम यमी संतानें उत्पन्न हुई। यम अर्थात् यमन करने वा मारने वाला तथा यमी =कालिन्दी (यमुना) गहरा होने से यमुना का जल नीला है। इससे निष्कर्ष निकला सूर्य शासक है।  तथा जल देने वाला है (वर्षा कारक)।

√●सूर्य + छाया के योग से सावर्णि-शनि दो पुत्र एवं तपनी नाम की कन्या हुई। सावर्णि = एकरूपता, आठवें मन्वन्तर का स्वामी शनि शुष्क। तपनी उष्मा, धूप। इससे निष्कर्ष निकलता है-सूर्य सदा सर्वदा एकरूप है, स्थिर है, स्थिर स्वभाव वाला है। सूर्य सबको सुखा कर बलहीन कर देता है। यह इसका शनित्व है। सबको अपनी प्रखर किरणों से तपाता है पीड़ा देता है। सूर्य उष्मावान् है।

√●सूर्य + अश्विनी के योग से दो अश्विनी कुमार पैदा हुए। कथा है, अश्विनी कुमारों ने च्यवन मुनि की आँखें ठीक कर दी। ये देव वैद्य हैं। औषधि शास्त्र के ज्ञाता हैं। इन सबका भाव है- आँखों में जो ज्योति है वह सूर्य से है। सूर्य खोई हुई दृष्टि को पुनः वापस देता है। आयुर्वेद, शल्य शास्त्र, चिकित्सा विज्ञान, औषधि निर्माण का कारक सूर्य है। बलवान् सूर्य वाले जातक वैद्य, शल्यक, चिकित्सक, भिषक् होते हैं। अश्विनी कुमार रूपवान् हैं। इसलिये ऐसे जातक सुन्दर रूप पाते हैं।

√●कुन्ती ने कौमार्यावस्था में सूर्य का आवाहन किया। सूर्य ने उसे रतिदान दिया। उससे कर्ण नामक पैदा हुआ। कर्ण अमित पराक्रमी था। कर्ण दानवीर था। उस काल का वह अप्रतिम दानी था। इस पुत्र आख्यान का सार है-सूर्य प्रभावित कुण्डलियों वाले जातक संभोग प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते हैं। धर्मानुकूल रति करते हैं। अत्यन्त पराक्रमी शूर वीर होते हैं। दान में इनकी समता करने वाला कोई नहीं होता। दृढ़ प्रतिज्ञ होते हैं। क्रूर कर्मा होते हैं। विश्वसनीय होते हैं। अंतिम साँस तक अपने मित्र का साथ देते हैं। अकृतघ्न होते हैं। स्पष्टवादी होते हैं। कुन्ती पुत्र कर्ण के चरित्र में जो कुछ है, वह सब सूर्य शासित कुण्डली वाले जातक में होता है।

√●सूर्य अध्यात्म विद्या और व्याकरण शास्त्र का कारक है। इस विषय में पौराणिक कथा है। हनुमान् जी के गुरु सूर्य हैं। सूर्य के सामने प्रस्थित होकर सूर्य के रथ की गति से चलते हुए मारुति नन्दन हनुमान् ने वेद-वेदांग, शास्त्र एवं उपनिषदों का अध्ययन किया। व्याकरण शास्त्र में विशेष योग्यता प्राप्त की। बाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान् जी शुद्ध एवं परिमार्जित शास्त्रीय संस्कृत में बोलते थे। हनुमान् जी जैसा संस्कृत वक्ता त्रिलोक में कोई नहीं है।

√●सूर्य पुष्टिवर्धक है। हड्डी का कारक होने से शरीर को दृष्ट पुष्ट बनाता है। लग्न भाव का कारक होने से शरीर का यह प्रतीक है। जैसा सूर्य होगा वैसा शरीर होगा। 

√●सूर्य देवो ज्ञान का दाता है। आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिये सूर्य की उपासना की जाती है। अपनी दशान्तर्दशा वा गोचर में जब सूर्य अशुभ फल दे रहा हो तो उसकी शांति के लिये दान व्रत जप करना चाहिये।

 √●दानद्रव्य- माणिक, सोना, तांबा, गेहूँ, गुड़, घी, लाल कपड़ा, लाल फूल, मूंगा, केशर, लाल गऊ, लाल चन्दन, लाल कम्बल

 √●दान का समय- अरुणोदय सूर्योदय काल । 

√●दान का दिन रविवार वा रवि की होरा।

√● जप मंत्र-सूर्याय नमः । 

√●समिधा-मदार। 

√●धारणा रत्न माणिक्य सोने की अंगूठी में रवि-पुण्ययोग में।

 √●उपरत्न- विद्रुम लाल तामड़ा मध्याह्न में।

√● धारणार्थ जड़ी-बिल्वमूल। जड़ी धारण का फल रत्न के समान होता है। 

√●पुष्यार्क योग में धारण करने से पूर्व तत्संबंधी पूजनादि क्रिया सम्पन्न कर लेनी चाहिये। लालरंग के डोरे में बाँध कर पुरुष अपनी दाहिनी भुजा में पहने तथा स्त्री गले में सविधि धारण करने पर फल तत्काल से ही मिलना प्रारंभ हो जाता है।

एक मंत्र है...

 "तस्याम् सर्वा नक्षत्रा वशे चन्द्रमसा सह ।"
        (अथर्व १३/ १४ /२८ )

√●चन्द्रमा सहित सभी नक्षत्र सूर्य के वश में हैं। 

√●इसका अर्थ है-सूर्य द्युति पति है। सूर्य के अस्त होने पर ही चन्द्रमा एवं नक्षत्रादि पिण्ड दिखायी देते हैं, उदय होने पर अदृश्य हो जाते हैं। मन्त्र का भाव है-जिसकी कुण्डली में बलवान् सूर्य है, वह जातक शासित होना नहीं चाहता, शासक बनना चाहता है और होता भी है। वह जातक स्वानुशासित होता है। सूर्य सबका परोक्ष रक्षक है। सूर्य दैव है। कवि कहता है ...

"अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति । 
जीवत्यनाथो विपिनेऽप्यरक्षितः कृतप्रयत्नोऽपि गृहे विनश्यति ॥"

√● जिसका कोई रक्षक नहीं है, उसकी रक्षा सूर्य करता है। जो किसी के द्वारा रक्षित है, उसको सूर्य मार डालता है। जंगल में अनाथ जीवित रहता है, जबकि घर में रक्षा हेतु यत्नवान् मृत्यु को प्राप्त होता है। सूर्य अदृष्ट प्रेरक है। अदृष्ट = भाग्य। अदृष्ट का प्रेरक दैव दैव और भाग्य में यहीं अन्तर है। सूर्य देव बोधक है, शनि भाग्य कारक है। कर में सूर्य रेखा के अभाव में शनि (भाग्य) रेख फलीभूत नहीं होती। अदृष्ट प्रेरक होने से सूर्य को सविता कहते हैं...

 "स एति सविता स्वर्दिवस्पृष्ठेऽव चाकशत् ।"
          (अथर्व १३ ।४ ।१ )

√●सविता = षू प्रेरणे। 

√●स्वः = स्वृ उपताये। 

√●चकाशत् = चकास् दीप्तौ। 

√●अब = नीचे।

 √●दिवस्पृष्ठे = शिर पर ।

√●एति =आता है। 

√●सूर्य आत्मा है। आत्मा कर्माध्यक्ष है, कर्तानहीं। जीव कर्ता भोक्ता है। जीव स्वकर्मवश सुख दुःख पाता है। 'मैं करता हूँ'-ऐसा कहना उचित नहीं। कर्म ही कर्म को करा रहा है। पूर्वजन्मजन्मान्तरों के कर्म संस्कार मुझसे लिखवा रहे हैं।

√●तत्ववेत्ता कहताहै ...

"सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता
      परो ददादीति कुबुद्धिरेषा।।
 अहं करोमीति वृथामिमानः
              स्वकर्मसूत्रप्रथितो हि लोकः ।।"

√● इसी बात को तुलसी दास दुहराते हैं...

 "नहि कोड है सुख दुःख कर दाता ।
 निजकृत कर्म भोग सब भ्राता ॥" 
       (राम चरितमानस )

√●मैंने इसी कर्मसूत्र की प्रेरणा से श्रीमद्भागवत गत सूर्य विज्ञान पर दृषि डाला श्री वेदव्यास की विशाल एवं सूक्ष्म बुद्धि का यह कौतुक है। यह सम्पूर्ण रूप से सब के लिये ग्राह्य नहीं है।

 "एहि सूर्य  सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते । 
अनुकम्पय मां देव पाहि पाहि दिवस्पते ॥"

 ★★★अब मैं द्वादशभाव गत सूर्य के फल का कश्यपोक्त उपकथन करता हूँ★★★

√●●प्रथम भावस्थ सूर्य ...

★१. उच्च राशि में, तीव्री। 
★२. उच्च नवांश में, दृढांग ।
 ★३. शुभग्रह के नवांश में, बहु आशी।
 ★४. नीच राशि में, रोगी ।
 ★५. नीच राशि के नवांश में, लावण्यहीन । 
★६. पाप ग्रह के नवांश में, अन्धा ।
 ★७. मित्र की राशि में दीर्घ । 
★८. मित्र राशि के नवांश में जटिल। 
★९. वर्गोत्तम में अधिकांग । 
★१०. शत्रु राशि में हीनांग । 
★११. शत्रु राशि के नवांश में दीन। 
★१२. स्व राशि में नीतिरहित।

√●●द्वितीय भारवसूर्य ...
★१. उच्च राशि में, राज सम्मान से धन ।
 ★२. उच्च नवांश में, राज सेवा से धन। 
★३. शुभ ग्रह के नवांश में, सुलोक दक्षता से धन ।
★४. नीच राशि में, पाप से धन। 
★५. नीच नवांश में, स्थूलजों से धन।
★६. पाप नवांश में चोरी से धन ।
★७. मित्रराशि में, कामाचार से धन ।
★ ८. मित्र नवांश में, लोभ से धन ।
 ★९. वर्गोत्तम में परनारी से धन।
 ★१०. शत्रु राशि में, स्वल्प धन ।
★ ११. शत्रु नवांश में, नीच सेवा से धन।
★ १२. स्व राशि में, भृत्यकर्म से धन ।

√●●तृतीय भावस्य सूर्य...

 ★१. उच्च राशि में, राजा ।
★२. उच्च नवांश में, राजपुत्र ।
 ★३. शुभग्रह के नवांश में, सार्वभौम । 
★४. नीच राशि में, दुष्ट । 
★५. नीच नवांश में, भिक्षुक ।
★६. पाप नवांश में, अग्रविरोधी । 
★७. मित्रराशि में, चारण ।
★ ८. मित्र नवांश में, ब्राह्मणवृत्ति ।
 ★९. वर्गोत्तम में, कुलीन।
 ★१०. शत्रु राशि में, शास्त्रविद् । 
★११. शत्रु नवांश में, वैरिक्षतांगी। 
★१२. स्व राशि में, निर्गुणी।

√●●चतुर्थ भावस्थ सूर्य ...

★१. उच्च राशि में, कष्ट से । सुख प्राप्ति।
★ २. उच्च नवांश में, अल्प धन से सुखी।
 ★३. शुभ ग्रह के नवांश में, परदारा से सुखी। 
★४. नीच राशि में, नवीन व्यवसाय से दुःखी। 
★५. नीच नवांश में, दुःखादय । 
★६. पाप नवांश में, श्रृण से दुःखी। 
★७. मित्रराशि में, पाप कर्मा। 
★८. मित्र नवांश में, चौर कर्मा। 
★९. वर्गोत्तम में नित्य श्रीयमान।
 ★१०. शत्रु राशि में, बुद्धरत ।
★११. शत्रु नवांश में, पर सेवा से सुखी ।
 ★१२. स्व राशि में, हिंसनकर्मा, बन्धनकर्मा । 

√●●पंचम भावस्थ सूर्य...
★ १. उच्च राशि में, हिंसक पुत्रवान् ।
★२. उच्च नवांश में, अल्पायु पुत्रवाला। 
★३. शुभनवांश में, रोगी, दीन पुत्र । 
★४. नीच राशि में, जाति नष्टकपुत्र ।
★ ५. नीच नवांश में, विकलांग पुत्र ।
★ ६. पाप नवांश में, गर्भनष्ट |
★७. मित्रराशि में, तीक्ष्णभाग्यशाली पुत्र ।
★ ८. मित्र नवांश में, दुःशील पुत्र ।
★ ९. वर्गोत्तम में, व्यसनीपुत्र । 
★१०. शत्रु राशि में, परदारज पुत्र ।
 ★११. शत्रु नवांश में, परस्त्रीज पुत्र ।
 ★१२. स्व राशि में, विगुण एवं चौर पुत्र वाला।

√●●षष्ठ भावस्थ सूर्य...

 ★१. उच्च राशि में, श्रेष्ठमान्य । 
★२. उच्च नवांश में वित्र विद्वान् । 
★३. शुभनवांश में, नृपतितुल्य । 
★४. नीच राशि में, दूषित बुद्धि ।
★ ५. नीच नवांश में स्वोरत । 
★६. पाप नवांश में, दूसरों की चिन्ता करने वाला।
 ★७. मित्रराशि में, अश्ववान् ।
★ ८. मित्र नवांश में गोपालक।
 ★९. वर्गोत्तम में स्वल्पशिल्पी । 
★१०. शत्रु राशि में, कामिनीसुत । 
★११. शत्रु नवांश में कुलटासुत।
 ★१२. स्व राशि में, विलासिनी स्त्री से युक्त ।

√●●सप्तमस्थ सूर्य...

★ १. उच्च राशि में, कलह प्रिया भार्या। 
★२. उच्च नवांश में, नित्य परधर्मतत्पर भार्या . ।
★३. शुभनवांश में दरिद्रा भार्या। 
★४. नीच राशि में, व्यभिचारिणी भार्या।
★ ५. नीच नवांश में, रोगिणी दारा । 
★६. पाप नवांश में, विशीला योषिता ।
 ★७. मित्रराशि में, घाततत्परा जाया ।
 ★८. मित्र नवांश में हीनविता भामिनी। 
★९. वर्गोत्तम में रतिप्रिया नारी।
★१०. शत्रु राशि में, व्यसनी संगिनी ।
★११. शत्रु नवांश में, स्वार्थी रमणी।
 ★१२. स्व राशि में, साहसी पत्नी।

√●●अष्टमस्थ सूर्य ....
★१. उच्च राशि में, भक्तिजाग्नि में प्रवेश से मरण । 
★२. उच्च नवांश में, लोकलज्जा से मरण ।
 ★३. शुभनवांश में, प्रमाद से मृत्यु।
 ★४. नीच राशि में, दावाग्नि से दग्ध।
★ ५. नीच नवांश में पाखण्ड पूर्ण कार्यों से अपमृत्यु । 
★६. पाप नवांश में, उद्दीपन से नष्ट। 
★७. मित्रराशि में, विषखाने से अन्त । 
★८. मित्र नवांश में, बन्धन से मृत्यु । 
★९. वर्गोत्तम में लोहे से घात ।
★१०. शत्रु राशि में, रक्तकोप से अवसान।
★ ११. शत्रु नवांश में, क्षय कास रोग से हानि।
 ★१२. स्व राशि में, स्त्री अपराध से पतन ।

√●●नवमस्थ सूर्य...

 ★१. उच्च राशि में, तामसीधर्मा।
★ २. उच्च नवांश में पाखण्डी ।
★ ३. शुभनवांश में, अल्पधर्मी ।
 ★४. नीच राशि में, धर्महीन ।
 ★५. नीच नवांश में, पराश्रित धर्मा। 
★६. पाप नवांश में, पिशुनाश्रयी संगति । 
★७. मित्रराशि में, पापज धर्मी ।
 ★८. मित्र नवांश में, अल्प अशनी ।
 ★९. वर्गोत्तम में, कृतघ्नी । 
★१०. शत्रु राशि में, वाक् धर्मी ।
★ ११. शत्रु नवांश में, चौरसंश्रित ।
★१२. स्व राशि में, पिशुनाश्रित धर्मा ।

√●●दशमस्थ सूर्य ...

★१. उच्च राशि में, धर्मव्रती । 
★२. उच्च नवांश में, बन्धक एवं वधिक ।
★ ३. शुभनवांश में, कलंकित ।
 ★४. नीच राशि में, दासतायुक्त ।
★५. नीच नवांश में, दुष्टराजा का सेवक ।
★ ६. पाप नवांश में, वध एवं बन्धनयुक्त ।
★७. मित्रराशि में, हिंसक प्रवृत्ति । 
★८. मित्र नवांश में, वाणिज्य कर्मा।
 ★९. वर्गोत्तम में, व्यवसायरत । 
★१०. शत्रु राशि में, अशुभफल ।
 ★११. शत्रु नवांश में, गर्हित निन्द्य । 
★१२. स्व राशि में, अन्य सेवापरायण।

√●●एकादशस्थ सूर्य- ...

★१. उच्च राशि में, गजाश्वोष्ट एवं लतावृक्षादि से लाभ । 
★२. उच्च नवांश में, कुत्ते से लाभ ।
★३. शुभनवांश में, कौड़ी से लाभ । 
★४. नीच राशि में दूषित अन्न से लाभ ।
★५. नीच नवांश में, परस्त्री से लाभ । 
★६. पाप नवांश में, सुहृदों से लाभ।
★ ७. मित्रराशि में कुल की स्त्री से लाभ ।
 ★८. मित्र नवांश में, श्रेष्ठ जनों से लाभ ।
★ ९. वर्गोत्तम में, खल लोगों से लाभ । 
★१०. शत्रु राशि में कम्बलों से लाभ ।
★११. शत्रु नवांश में, दुष्टों से लाभ ।
 ★१२. स्व राशि में, गुणवानों से लाभ।

√●द्वादशस्य सूर्य ...

★१. उच्च राशि में, बड़े कार्यों में व्यय । 
★२. उच्च नवांश में, बड़े लोगों की सेवा पर व्यय । 
★३. शुभनवांश में, ब्राह्मण एवं देवता पर।
 ★४. नीच राशि में, दुर्जनों पर व्यय ।
 ★५. नीच नवांश में, दुष्टा स्त्री पर व्यय ।
★ ६. पाप नवांश में, अन्त्यजों पर व्यय । 
★७. मित्रराशि में, मित्रों पर व्यय । 
★८. मित्र नवांश में, लोगों के अनुरोध करने पर व्यय ।
★९. वर्गोत्तम में, नृपाश्रय हो कर व्यय। 
★१०. शत्रु राशि में, वेश्याओं पर व्यय ।
★ ११. शत्रु नवांश में, कुलटाओं के स्नेहवश व्यय ।
 ★१२. स्व राशि में, भय (ज्ञान) वश व्यय । ग्रहों की युति दृष्टि से कथित फल में अन्तर आ जाता है।
 ओ३म् ।
"सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च।"
       (यजुर्वेद ७/४२)
अर्थात् गतिशील प्राणी तथा निष्क्रिय जड़ पदार्थों का भी सूर्य आत्मा है। सूर्य के इस अद्भुत प्रकाश का रहस्य क्या है? यह तथ्य तो बहुत पहले जान लिया गया था कि सूर्य की चमक सामान्य कोयले या लकड़ी की आग से उत्पन्न नहीं है। धरती के उच्चतम श्रेणी के कोयले की शुद्ध ऑक्सीजन से प्राप्त ज्वाला भी सूर्य की तीव्र सन्दीप्ति के सामने क्षुद्रतम है। वेद के शब्दों में यह धरती की अग्नि तो सूर्य का नन्हां शिशु है। वह धरती के पदार्थों में रगड़ से उत्पन्न होने से सहस् का पुत्र है। पर उसमें सूर्य का सामर्थ्य कहाँ हो सकता है। यदि सूर्य में धरती जैसे कोयले, पेट्रोल आदि का प्रयोग होता तो धरती से लाखों गुना विशाल सूर्य भी लाखों वर्ष पूर्व जल कर भस्म हो गया होता। वस्तुतः सूर्य परमाणु ऊर्जा से संचालित है। इसकी भयंकर ऊष्मा में हाइड्रोजन गैस के परमाणु विखण्डित होते हुए निरन्तर हीलियम में बदलते रहते हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य के क्रोड का तापमान 380 लाख डिग्री फारेनहाइट है। तुलना के लिये कह दें कि स्वस्थ मनुष्य अपना औसत तापमान 98° F बनाए रखता है। इससे अधिक तापमान में उसे गर्मी लगने लगती है। पानी अपने सामान्य वायुदाब में 212° F में उबलने लगता है, जिसे हमारी त्वचा सहन नहीं कर सकती। इसकी अपेक्षा सूर्य की ऊष्मा की क्या तुलना है ! विश्व की आधुनिकतम प्रयोगशालाओं में हाइड्रोजन बम के द्वारा इतनी भयंकर ऊष्मा को उत्पन्न किया जा सका है। पर वह सेकेण्ड के क्षुद्र अंश तक ही स्थिर रह पाती है। पर यही ऊष्मा सूर्य के कारखाने में करोड़ों वर्षों से निरन्तर प्राप्त की जा रही है। पहले कहा गया है कि मानव का सबसे पहला अचरज सूर्य प्रकाश था। वर्तमान युग में सूर्य के विषय में इतने अकल्पनीय तथ्यों के परिज्ञान के पश्चात् ऐसा लगता है कि मानव जाति का अन्तिम अचरज भी यही सूर्य प्रकाश है!!
√★★जब सूर्य स्थिर है तो फिर ज्योतिष में ये अपनी राशियाँ और नक्षत्र कैसे बदलता है ?
असल में इस पूरे ब्रह्मांड में कुछ भी स्थिर नहीं है।

√●जिस प्रकार चन्द्रमा पृथ्वी का चक्कर लगाता है और पृथ्वी सूर्य का ठीक उसी प्रकार से सूर्य और पूरा सौरमंडल आकाश गंगा के केंद्र का चक्कर लगाता है। सौर मंडल के परमेष्ठी मंडल (आकाश गंगा का केंद्र) का एक चक्कर पूर्ण करने में लगभग पृथ्वी के 30,67,20,000 (तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार वर्ष) लग जाते हैं, इसी समय को एक मन्वंतर कहा गया है।परमेष्ठि मंडल भी स्वयंभू मंडल(अपने ऊपर वाली आकाश गंगा) के चक्कर काटता है और इसमें 4 अरब 32 करोड़ वर्ष(432000000) लग जाते हैं जिसे ज्योतिष में एक कल्प कहा गया है,एक कल्प अर्थात ब्रह्मा का एक दिन। इस से यह सिद्ध होता है कि ब्रह्मांड में सूर्य स्थिर नहीं है।

√★★परमेष्ठी मंडल को अलग अलग राशियों में बांटा गया है इन्ही राशियों के आधार पर किसी क्षण ग्रह एवं नक्षत्रों की स्थिति का पता चलता है ।किसी क्षण पृथ्वी को स्थिर मानकर पृथ्वी के सापेक्ष ग्रहों की स्थिति ही ज्योतिष का मूल आधार है।
★★★सूर्यसिद्धान्तके अधिष्ठाता भगवान् सूर्य और उनका महनीय चरित★★★

" ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः । 
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥"
(ऋग्वेद०१।११५।१,शु.यजुर्वेद  ७।४२)

सूर्योपस्थानकी यह ऋचा भुवनभास्कर भगवान् सूर्यकी महिमामें पर्यवसित है। इसका भाव है- जो तेजोमयी किरणोंके पुंज हैं, मित्र, वरुण तथा अग्नि आदि देवताओं एवं समस्त विश्वके प्राणियोंके नेत्र हैं और स्थावर-जंगमात्मक समस्त जीवनिकायके अन्तर्यामी आत्मा हैं, वे भगवान् सूर्य आकाश, पृथिवी और अन्तरिक्षलोकको अपने प्रकाशसे पूर्ण करते हुए आश्चर्यरूपसे उदित हो रहे हैं। 

ऋषि वसिष्ठजी उनकी स्तुति करते हुए कहते हैं- जो ज्ञानियोंके अन्तरात्मा, जगत्‌को प्रकाशित करनेवाले, संसारके हितैषी, स्वयम्भू तथा सहस्र उद्दीप्त नेत्रोंसे सुशोभित हैं, उन अमित तेजस्वी सुरश्रेष्ठ भगवान् सूर्यको नमस्कार है— 

"विवस्वते ज्ञानभृदन्तरात्मने जगत्प्रदीपाय जगद्धितैषिणे ।
 स्वयम्भुवे दीप्तसहस्रचक्षुषे सुरोत्तमायामिततेजसे नमः ॥"
(महा०आदि० १७२।१८)

भुवनभास्कर भगवान् सूर्यनारायण प्रत्यक्ष देवता हैं, प्रकाशरूप हैं। उपनिषदोंमें भगवान् सूर्यके तीन रूपोंका विवेचन हुआ है- १ - निर्गुण-निराकार, २-सगुण-निराकार और ३- सगुण-साकार । "आदित्यं ब्रह्मेति" (छान्दो० ३ । १९ । १) ।

√●चाक्षुषोपनिषद् में वर्णन आया है कि सांकृतमुनिने आदित्यलोकमें जाकर भगवान् सूर्यसे चाक्षुष्मती विद्या प्राप्त की। ऐसे ही ऋषिप्रवर याज्ञवल्क्यजीने भी आदित्यलोकमें जाकर उनका दर्शन किया और आत्मतत्त्वका उपदेश प्राप्त किया। हनुमान्जीका उनके द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्त करना प्रसिद्ध ही है-'भानुसों पढ़न हनुमान गये'। भगवान् सूर्य स्वयं परमात्मारूप हैं तथा भक्तोंके लिये सगुण-साकाररूप धारण करते हैं। विविध विद्याओंका उपदेश देते हैं और स्वयं ग्रहाधिपतिरूपमें प्रतिष्ठित होकर ज्योतिश्चक्र का प्रवर्तन और नियमन करते हैं।

  जैसे भगवान् विष्णुका स्थान वैकुण्ठ, भूतभावन शंकरका कैलास, चतुर्मुख ब्रह्माका ब्रह्मलोक और भगवती जगन्माताका मणिद्वीप है, वैसे ही आदित्यनारायणका स्थान आदित्यलोक - सूर्यमण्डल है। भगवान् सूर्य ही कालचक्रके प्रणेता हैं। सूर्यसे ही दिन- रात्रि, घटी, पल, मास, पक्ष, ऋतु, अयन तथा संवत्सर आदिका विभाग होता है। ये सम्पूर्ण जगत्के प्रकाशक हैं, इनके बिना सब अन्धकार है। सूर्य ही जीवन, तेज, ओज, बल, यश, चक्षु, श्रोत्र, आत्मा और मन हैं- 'आदित्यो वै तेज ओजो बलं यशश्चक्षुः श्रोत्रे आत्मा मनः' (नारायणोपनिषद् १५) । 

इनके आविर्भावकी परम्परामें बताया गया है कि भगवान् विष्णुके नाभिकमलसे ब्रह्माजीका जन्म हुआ । ब्रह्माजीके मानसपुत्रका नाम मरीचि है। महर्षि मरीचिसे कश्यपका जन्म हुआ। ये कश्यप ही सूर्यके पिता हैं, इनकी माताका नाम अदिति है, जो दक्षप्रजापतिकी पुत्री हैं, इसलिये ये अदितिनन्दन तथा मरीचिसून भी कहलाते हैं।

भगवान् सूर्य सम्पूर्ण ग्रहोंके राजा हैं, जिस प्रकार घरके मध्य भागमें स्थित प्रज्वलित दीपक ऊपर-नीचे सम्पूर्ण घरको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार अखिल जगत्के अधिपति सूर्य अपनी हजारों रश्मियोंसे लोकोंको प्रकाशित करते रहते हैं। परम दिव्य तेजःपुंज ही सूर्यका स्वरूप है। सूर्यका तेजोमण्डल दो भागों में विभक्त है, सूर्यमण्डलका एक तेज ऊर्ध्वकी ओर उद्दीप्त करता है, उस तेजकी शक्ति संज्ञा है, दूसरा तेज अधोगामी- पृथ्वीसे पातालपर्यन्त उद्दीपन करता है, उस तेजकी शक्तिका नाम छाया है। पुराणोंमें संज्ञा तथा छाया-ये भगवान् सूर्यकी दो पत्नियाँ बतायी गयी हैं। ये दोनों उनकी शक्तिके रूपमें निरन्तर गतिशील रहती हैं।

सूर्यलोकमें भगवान् सूर्यके समक्ष इन्द्रादि सभी देवता - ऋषिगण स्थित रहते हैं तथा गन्धर्व एवं अप्सराएँ नृत्य - गानसे उनकी स्तुति करती हैं। तीनों सन्ध्याएँ मूर्तिमान् रूपमें वहाँ उपस्थित रहती हैं। भगवान् सूर्य सात छन्दोमय अश्वोंसे युक्त हैं, इसलिये वे सप्ताश्वतिलक कहलाते हैं। वे घटी, पल, ऋतु, संवत्सरादि कालके अवयवोंद्वारा निर्मित दिव्य रथपर आरूढ़ होकर सुशोभित रहते हैं। गरुड़के छोटे भाई अरुण उनके सारथिका कार्य करते हैं। उनके दोनों पाश्र्वमें दाहिनी ओर राज्ञी (संज्ञा)* और बायीं ओर निक्षुभा (छाया) नामकी दो पत्नियाँ स्थित रहती हैं। उनके साथमें पिंगल नामके लेखक, दण्डनायक नामके द्वाररक्षक तथा कल्माष नामके दो पक्षी द्वारपर खड़े रहते हैं। दिण्डि उनके मुख्य सेवक हैं, जो उनके सामने खड़े रहते हैं।

★★★ भगवान् सूर्यका परिवार★★★

  भगवान् सूर्यकी दस सन्तानें हैं। विश्वकर्माकी पुत्री संज्ञा (अश्विनी) नामक पत्नीसे वैवस्वत मनु, यम, यमी (यमुना), अश्विनीकुमारद्वय और रेवन्त तथा छायासे शनि, तपती, विष्टि (भद्रा) और सावर्णि मनु हुए।

 भगवान् सूर्यके परिवारकी यह कथा पुराणों आदिमें अनेक प्रकारसे सूक्ष्म एवं विस्तारसे आयी है, उसका सारांश यहाँ प्रस्तुत है-

 √●    विश्वकर्मा (त्वष्टा) - की पुत्री संज्ञा (त्वाष्ट्री ) - से जब सूर्यका विवाह हुआ तब अपनी प्रथम तीन सन्तानों वैवस्वत मनु, यम तथा यमी (यमुना) की उत्पत्तिके बाद उनके तेजको न सह सकनेके कारण संज्ञा अपने ही रूप - आकृति तथा वर्णवाली अपनी छायाको वहाँ स्थापितकर अपने पिताके घर होती हुई 'उत्तरकुरु' में जाकर छिपकर वडवा (अश्वा) का रूप धारणकर अपनी शक्तिवृद्धिके लिये कठोर तप करने लगी। इधर सूर्यने छायाको ही पत्नी समझा तथा उससे उन्हें सावर्णि मनु, शनि, तपती तथा विष्टि (भद्रा) – ये चार सन्तानें हुईं। जिन्हें वह अधिक प्यार करती, किंतु संज्ञाकी सन्तानों वैवस्वत मनु तथा यम एवं यमीका निरन्तर तिरस्कार करती रहती। 

   √●माता छायाके तिरस्कारसे दुःखी होकर एक दिन यमने पिता सूर्यसे कहा- तात ! यह छाया हमलोगोंकी माता नहीं हो सकती; क्योंकि यह हमारी सदा उपेक्षा, ताड़न करती है और सावर्णि मनु आदिको अधिक प्यार करती है । यहाँतक कि उसने मुझे शाप भी दे डाला है। सन्तान माताका कितना ही अनिष्ट करे, किंतु वह अपनी सन्तानको कभी शाप नहीं दे सकती। यमकी बातें सुनकर कुपित हुए सूर्यने छायासे ऐसे व्यवहारका कारण पूछा और कहा-सच-सच बताओ तुम कौन हो ? यह सुनकर छाया भयभीत हो गयी और उसने सारा रहस्य प्रकट कर दिया कि मैं संज्ञा नहीं, बल्कि उसकी छाया हूँ। 

√●सूर्य तत्काल संज्ञाको खोजते हुए विश्वकर्माके घर पहुँचे। उन्होंने बताया कि भगवन्! आपका तेज सहन न कर सकनेके कारण संज्ञा अश्वा (घोड़ी) का रूप धारणकर उत्तरकुरुमें तपस्या कर रही है। तब विश्वकर्माने सूर्यकी इच्छापर उनके तेजको खरादकर कम कर दिया। अब सौम्य शक्तिसे सम्पन्न भगवान् सूर्य अश्वरूपसे वडवा (संज्ञा-अश्विनी) के पास उससे मिले। वडवाने 
परपुरुषके स्पर्शकी आशंकासे सूर्यका तेज अपने नासाछिद्रोंसे बाहर फेंक दिया। उसीसे दोनों अश्विनीकुमारोंकी उत्पत्ति हुई, जो देवताओंके वैद्य हुए। तेजके अन्तिम अंशसे रेवन्त नामक पुत्र हुआ, जो गुह्यकों और अश्वोंका अधिपति हुआ। इस प्रकार भगवान् सूर्यका विशाल परिवार यथास्थान प्रतिष्ठित हो गया। यथा- वैवस्वत मनु वर्तमान (सातवें) मन्वन्तरके अधिपति हैं। यम यमराज एवं धर्मराजके रूपमें जीवोंके शुभाशुभ कर्मोके फलोंको देनेवाले हैं। यमी यमुना नदीके रूपमें जीवोंके उद्धारमें लगी हैं। अश्विनीकुमार (नासत्य-दस्त्र) देवताओंके वैद्य हैं ( रेवन्त निरन्तर भगवान् सूर्यकी सेवामें रहते हैं। सूर्यपुत्र शनि ग्रहोंमें प्रतिष्ठित हैं। सूर्यकन्या तपतीका विवाह सोमवंशी अत्यन्त धर्मात्मा राजा संवरणके साथ हुआ, जिनसे कुरुवंशके स्थापक राजर्षि कुरुका जन्म हुआ। इन्हींसे कौरवोंकी उत्पत्ति हुई। विष्टि भद्रा नामसे नक्षत्रलोकमें प्रविष्ट हुई। सावर्णि मनु आठवें मन्वन्तरके अधिपति होंगे। इस प्रकार भगवान् सूर्यका विस्तार अनेक रूपोंमें हुआ है। वे आरोग्यके अधिदेवता हैं- 'आरोग्यं भास्करादिच्छेत्' (मत्स्यपु० ६८ । ४१) । 

★★★ज्योतिषशास्त्र और भगवान् सूर्य★★★

    गणित, होरा एवं संहिता - इन तीन स्कन्धोंसे युक्त ज्योतिषशास्त्र वेदका चक्षुभूत प्रधान अंग है। इस विद्यासे भूत, भविष्य, वर्तमान, अनागत, अव्यवहित, अदृष्ट- अवच्छिन्न सभी वस्तुओं तथा त्रिलोकका प्रत्यक्षवत् ज्ञान हो जाता है। ज्योतिषज्ञानविहीन लोक अन्य ज्ञानोंसे पूर्ण होनेपर भी दृष्टिशून्य अन्धेके तुल्य होता है। इस महनीय ज्योतिषशास्त्रके प्राण तथा आत्मा और ज्योतिश्चक्रके प्रवर्तक भगवान् सूर्य ही हैं। वे स्वर्ग और पृथ्वीके नियामक होते हुए उनके मध्य बिन्दुमें अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके केन्द्र में स्थित होकर ब्रह्माण्डका नियमन और संचालन करते हैं। उनके ही द्वारा दिशाओंका निर्माण, कला, काष्ठा, पल, घटी, प्रहरसे लेकर अब्द, युग, मन्वन्तर तथा कालपर्यन्त कालोंका विभाजन, प्रकाश, ऊष्मा, चैतन्य, प्राणादि वायु, झंझावात, विद्युत्,मेघ, वृष्टि, अन्न तथा प्रजावर्गको ओज एवं प्राणशक्तिका दान एवं नेत्रोंको देखनेकी शक्ति प्राप्त होती है। भगवान् सूर्य ही देवता, तिर्यक्, मनुष्य, सरीसृप तथा लता- वृक्षादि समस्त जीवसमूहोंके आत्मा और नेत्रेन्द्रियके अधिष्ठाता हैं-

"देवतिर्यङ्मनुष्याणां सरीसृपसवीरुधाम्।
 सर्वजीवनिकायानां सूर्य आत्मा दृगीश्वरः ॥"
 (श्रीमद्भा० ५। २० । ४६)

   ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सूर्य समस्त ग्रह एवं नक्षत्रमण्डलके अधिष्ठाता तथा कालके नियन्ता हैं। ग्रहोंमें कक्षाचक्र के अनुसार सूर्यके ऊपर मंगल तथा फिर क्रमशः गुरु तथा शनि हैं और नीचे क्रमशः शुक्र, बुध तथा चन्द्रकक्षाएँ हैं। सूर्य, चन्द्र एवं गुरुके कारण पाँच प्रकारके संवत्सरों-वत्सर, परिवत्सर, अनुवत्सर, इडावत्सर तथा संवत्सरका निर्माण होता है।

★★★ग्रहोंके रूपमें सूर्यका स्वरूप-निरूपण★★★

   ज्योतिषशास्त्रमें ग्रहोंके रूपमें सूर्यका जो विचार हुआ है, उसका संक्षेपमें सार इस प्रकार है-

    सूर्य सिंह राशिके स्वामी हैं। मेष राशिके दस अंशमें स्थित होकर उच्च तथा कन्याराशिमें नीच कहलाते हैं। इनका आकार ह्रस्व, समवृत्त, वर्ण क्षत्रिय, प्रकृति पुरुष, संज्ञा क्रूर, गुण सत्त्व, रंग लाल, निवासस्थान देवालय, भूलोक एवं अरण्य, उदय-प्रकार पृष्ठोदय, प्रकृति पित्त, दृष्टि आकाशकी ओर तथा मुँह पूर्वकी ओर रहता है। ये कटुरसके विधाता तथा धातुस्वरूप हैं। अग्नि इनके देवता हैं, माणिक्य धारण करने तथा हरिवंशपुराणके श्रवणसे सूर्यकृत अरिष्टकी शान्ति होती है। ये ग्रहोंके राजा हैं। इनकी मंगल, चन्द्रमा और बृहस्पतिसे नैसर्गिक मित्रता, शुक्र तथा शनिसे शत्रुता और बुधसे उदासीनता है। कुण्डलीमें सूर्यसे पिता, आत्मा, प्रताप, आरोग्यता और राज्यलक्ष्मी आदिका विचार किया जाता है। ये अपनी उच्च राशि, द्रेष्काण, होरा, रविवार, नवांश, उत्तरायण, मध्याह्न, राशिके आरम्भ, मित्रके नवमांश तथा लग्नसे दसवें भावमें सदा बलवान् होते हैं। ये सदा मार्गी रहते हैं, वक्री नहीं होते। विंशोत्तरी दशाके अनुसार सूर्यकी महादशा छः वर्ष रहती है। सूर्य मेषादि द्वादश राशियोंमें भ्रमण करते हैं। एक राशिसे दूसरी राशिके संक्रमणको संक्रान्ति कहते हैं। इस प्रकार भ्रमणसे द्वादश राशियोंके बारह सौरमास तथा एक सौरवर्ष होता है। सूर्य एक राशिमें एक मास रहते हैं। मकर तथा कर्कसे अयन संक्रान्तियाँ बनती हैं। मकरसंक्रान्तिसे उत्तरायण तथा कर्कसंक्रान्तिसे दक्षिणायन होता है। मेष तथा तुलाकी संक्रान्ति विषुवसंक्रान्ति कहलाती है। धनु, मिथुन, कन्या, मीनकी संक्रान्तियाँ षडशीतिमुखा और सिंह, वृश्चिक, वृष तथा कुम्भकी संक्रान्तियाँ विष्णुपदा कहलाती हैं।

★★★ज्योतिषसिद्धान्तके उद्भावकके रूपमें भगवान् सूर्य ★★★
  ज्योतिषसिद्धान्तके प्रवर्तक आद्य आचार्योंके रूपमें दैवज्ञ नारद, महर्षि पराशर तथा ऋषिप्रवर कश्यपजीने जिन अठारह (मतान्तरसे उन्नीस) आचार्योंका परिगणन किया है, उनमें भगवान् सूर्यका नाम मुख्यरूपसे उल्लिखित है, किंतु भगवान् सूर्यद्वारा प्रत्यक्ष उपदिष्ट अथवा रचित कोई ग्रन्थ वर्तमानमें उपलब्ध नहीं । सूर्यसिद्धान्तका सर्वाधिक प्राचीन उल्लेख आचार्य वराहमिहिरने किया है। वराहमिहिर महान् दैवज्ञ हो चुके हैं, उन्होंने ज्योतिषके तीनों स्कन्धों-सिद्धान्त (गणित), संहिता तथा होरा (जातक) - पर ग्रन्थ प्रणयनकर लोकका महान् उपकार किया है। जातकशास्त्रमें उनका फलित- विषयक बृहज्जातक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, संहिताके विषयोंको उन्होंने बृहत्संहिता (वाराहीसंहिता) में संग्रहीत किया है। सिद्धान्त (गणित) के क्षेत्रमें उन्होंने अपने समयमें प्रचलित गणितके प्राचीन पाँच सिद्धान्तोंका वर्णन अपने पंचसिद्धान्तिका नामक ग्रन्थमें किया है, वे (पाँच सिद्धान्त इस प्रकार हैं-
 (१) पैतामह सिद्धान्त, 
(२) वासिष्ठ सिद्धान्त, 
(३) पौलिश सिद्धान्त, 
(४) रोमक सिद्धान्त तथा 
(५) सौर सिद्धान्त- 'पौलिशरोमकवासिष्ठसौर-पैता-महास्तु पञ्चसिद्धान्ताः '।

इन पाँचों सिद्धान्तोंमें सूर्यसिद्धान्तका विशेष महत्त्व है; क्योंकि अन्य सिद्धान्तोंकी अपेक्षा यह विस्तृत है तथा इसके विवेचनकी पद्धति अत्यन्त सूक्ष्म है। आचार्य वराहमिहिरने पाँचों सिद्धान्तोंका अनुशीलनकर तुलनात्मक दृष्टिसे सूर्यसिद्धान्तको अधिक स्पष्ट तथा शुद्ध बताया है। अपनी बातको आचार्यने 'स्पष्टतरः सावित्रः ' (पंचसिद्धा० ४) कहकर व्यक्त किया है। इसी कारण परवर्ती आचार्यों आर्यभट, ब्रह्मगुप्त, वराहमिहिर आदि सूर्यसिद्धान्तको अधिक महत्त्व दिया। पंचसिद्धान्तिक के ९ वें, १० वें तथा १६वें और १७वें - इस प्रकार चार अध्यायोंमें वराहमिहिराचार्यने प्राचीन सूर्यसिद्धान्तकी व्याख्या की है। अध्याय ९ में सूर्यग्रहणका गणित, अध्याय १० में चन्द्रग्रहण, अध्याय १६ में ग्रहोंके मध्यम मान ज्ञात करनेका गणित तथा १७वें अध्यायमें गणितद्वारा ग्रहोंके स्पष्ट मानको ज्ञात करनेकी विधि वर्णित है। वस्तुतः भारतीय सिद्धान्तज्योतिषमें सूर्यसिद्धान्तके गणितसे ही पूर्ण वैज्ञानिकता आयी और यही कारण था कि सूर्यसिद्धान्तके बाद यद्यपि प्राचीन सिद्धान्तोंके नाम वही रहे, किंतु कुछ परिष्कार, संशोधन एवं परिवर्धनके साथ आगे गणितके सिद्धान्त बने। मूल गणित सिद्धान्त भगवान् सूर्यके नामपर ही आज भी प्रचलित है।

★★★ वर्तमानमें उपलब्ध सूर्यसिद्धान्त★★★

   वर्तमानमें खगोलीय गणितज्ञानका भगवान् सूर्यके नामसे एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध है, जो 'सूर्यसिद्धान्त' के नामसे प्रसिद्ध है। यह ग्रन्थ चौदह अध्यायों (अधिकारों) में विभक्त है, इसकी श्लोक संख्या ५०० के आसपास है। अध्याय ११ तकका नाम पूर्वखण्ड तथा शेष तीनका नाम उत्तरखण्ड है।

  इस ग्रन्थके प्रादुर्भावके सम्बन्धमें ग्रन्थारम्भमें एक रोचक आख्यान आया है, जिसका सारांश यहाँ उपस्थित है-

प्राचीनकालकी बात है, मयासुर नामक महान् शिल्पीने सत्ययुगके अन्तमें वेदांगोंमें श्रेष्ठ तथा परम पुण्यमय तथा अत्यन्त रहस्यमय नक्षत्र-ज्ञान (ज्योतिष- विद्या) के श्रेष्ठ ज्ञानको प्राप्त करनेके लिये अत्यन्त कठोर तप करके भगवान् सूर्यकी आराधना की। उसके तपसे प्रसन्न हुए भगवान् सविता प्रकट हुए और उसे वरदान देते हुए बोले- हे दानवश्रेष्ठ मय! मैं तुम्हारी तपस्यासे सन्तुष्ट हूँ, मैंने तुम्हारे अभिप्रायको समझ लिया है, मैं तुम्हें अवश्य सम्पूर्ण ज्योतिर्विज्ञानका ज्ञान प्रदान करूँगा और उसका रहस्य भी बताऊँगा, * किंतु हे मय ! मूल बात यह है कि इस त्रिलोकमें ऐसा कोई नहीं है, जो मेरे तेजको सह सके, जो भी मेरे समक्ष रहेगा, वह मेरे तापसे दग्ध हो जायगा और दूसरी बात यह है कि मैं निरन्तर भ्रमण करता रहता हूँ, अतः मेरे पास अवकाश भी नहीं है, इसी कारण मेरा ही अंशभूत पुरुषावतार प्रकट होकर तुम्हें सम्पूर्ण ज्योतिषशास्त्र बतलायेगा- 

"न मे तेजः सहः कश्चिदाख्यातुं नास्ति मे क्षणः ।
 मदंशः पुरुषोऽयं ते निःशेषं कथयिष्यति ॥"
        (सूर्यसिद्धान्त १।६)

    मयासुरसे ऐसा कहकर तथा अपने अंशावतार पुरुषको मयके प्रति सम्पूर्ण ज्योतिषशास्त्र उपदिष्ट करनेकी आज्ञा देकर भगवान् सूर्य अन्तर्धान हो गये, तदनन्तर मयने अत्यन्त श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सूर्यांशपुरुषको प्रणाम किया, तब सूर्यावतार पुरुषने कहा- हे मय ! प्रत्येक युगमें भगवान् सूर्य ऋषियोंको ज्योति: शास्त्रका जो उत्तम ज्ञान दिया करते हैं, उन्हींके अनुग्रहसे मैं तुम्हें बताता हूँ, एकाग्र होकर सुनो। तदनन्तर सर्वप्रथम मयसे कालतत्त्व का निरूपण करते हुए कहा-कालके दो रूप हैं एक तो अविभाज्य कालतत्त्व है, जो शास्त्रप्रमाणद्वारा ही सिद्ध है, वह लोकोंका अन्त करनेवाला है, कालका दूसरा स्वरूप है, जो कलनात्मक है, विभाज्य है, ज्ञानका विषय है, उसे जाना जा सकता है। यह कलनात्मक काल भी स्थूल (मूर्त) एवं सूक्ष्म (अमूर्त) - दो प्रकारका है- 

"लोकानामन्तकृत्कालः कालोऽन्यः कलनात्मकः । 
स द्विधा स्थूलसूक्ष्मत्वान्मूर्तश्चामूर्त उच्यते ॥"
       (सूर्यसिद्धान्त १।१०) 

इस प्रकार आगे मयासुरको सूर्याशपुरुषने सम्पूर्ण गणितशास्त्रका उपदेश दिया, जो मूलतः भगवान् सूर्यका ही अभिमत था। मयद्वारा सूर्यावतार सूर्याशपुरुषसे प्राप्त ज्योतिषशास्त्र विद्याका उल्लेख इसी ग्रन्थ (सूर्यसिद्धान्त) - में अन्यत्र भी आया है। वहाँ भी निर्दिष्ट है कि मयासुरने परम भक्तिपूर्वक सूर्यांशपुरुषकी पूजाकर उनसे अनेक प्रश्न किये- 

"अथार्कांशसमुद्भूतं प्रणिप्रत्य कृताञ्जलिः ।
 भक्त्या परमयाभ्यर्च्य पप्रच्छेदं मयासुरः ॥"
       (सूर्यसिद्धान्त १२ । १)

सम्पूर्ण विद्या देनेके अनन्तर सूर्यांशपुरुष बोले- हे सूर्यभक्त दैत्यश्रेष्ठ मय! मैंने यह परम अद्भुत रहस्य तुम्हें बतलाया है, यह सभी पापोंका नाश करनेवाला तथा परम पवित्र और ब्रह्मस्वरूप है। ग्रहों और नक्षत्रोंसे सम्बद्ध यह जो दिव्य ज्ञान तुम्हें प्रदान किया, इसको जान लेनेसे सूर्यादि लोकोंमें सदाके लिये स्थान प्राप्त होता है- 'विज्ञेयार्कादिलोकेषु स्थानं प्राप्नोति शाश्वतम् ॥' (सूर्यसिद्धान्त १४ । २३) इस प्रकार मयको भलीभाँति उपदेश देनेके अनन्तर सूर्यांशपुरुष उनसे पूजित होकर सूर्यमण्डलमें प्रविष्ट हो गये। मयने भी वह दिव्य ज्ञान प्राप्तकर अपनेको धन्य और कृतार्थ माना। कालान्तरमें ऋषियोंको जब यह जानकारी हुई कि मयने सूर्यभगवान्से वर प्राप्त किया है तो वे भी उस ज्ञानको प्राप्त करनेके लिये आदरपूर्वक उसके पास गये और प्रसन्न होकर मयासुरने भी ऋषियोंको ग्रहों-नक्षत्रोंकी स्थितिका भलीभाँति ज्ञान कराया-'स तेभ्यः प्रददौ प्रीतौ ग्रहाणां चरितं महत्।' ( सूर्यसिद्धान्त १४ । २७) इस प्रकार भगवान् सूर्यसे प्रकट ज्योतिर्विद्या सूर्यांशपुरुष, मयासुर तथा ऋषियोंको अनुक्रमसे परम्परया प्राप्त होकर लोकमें प्रचलित हुई। 

★★★सूर्यसिद्धान्तका प्रतिपाद्य विषय★★★

    सूर्यसिद्धान्त चौदह अध्यायोंमें उपनिबद्ध है। यहाँ प्रत्येक अध्यायकी बातें संक्षेपमें प्रस्तुत हैं- 

√●(१) प्रथम अध्याय (मध्यमाधिकार) के प्रारम्भमें सूर्यांशपुरुषद्वारा मयको ज्योतिर्विद्या प्राप्त करनेका आख्यान, कालविभाग, युगमान, दिन- संख्या, अहर्गण, ग्रहोंका मध्य, मन्दोच्च और शीघ्र गतिज्ञान करके वारप्रवृत्ति तथा तात्कालिक ग्रहज्ञानका गणित वर्णित है। 

√●(२) दूसरे स्पष्टाधिकारमें ग्रहगतिका कारण, ग्रहोंकी आठ प्रकारको गतियोंका वर्णन, ज्यानिर्णय, क्रान्ति और केन्द्रसाधन, ग्रहस्पष्ट, भुजान्तरसंस्कार, अहोरात्रमान, तिथि, नक्षत्र, योग तथा करणों आदिके गणितका वर्णन है।

√● (३) तीसरे अध्यायको त्रिप्रश्नाधिकार कहा गया है। दिकू, देश तथा कालसम्बन्धी तीन बातोंका इसमें वर्णन है। इसके लिये पलभा, अयनांश, नत्यानयन निरक्षराशिमान, लग्न तथा दशम लग्नज्ञानकी विधियाँ दी गयी हैं। 

√●(४) चौथा अध्याय चन्द्रग्रहणाधिकार है, इसमें सूर्यचन्द्रबिम्बका ज्ञान, सूर्य तथा चन्द्रग्रहणका स्वरूप तथा ग्रहणके भेद आदिका गणित है। 

√●(५) पाँचवें अध्यायमें विशेषरूपसे सूर्यग्रहणके गणितका विमर्श है।

√● (६) छठे छेद्यकाध्याय नामक अध्यायमें परिलेखाधिकारका वर्णन है। ग्रहणोंके भेदज्ञानको बतानेवाले छेदक गणितका वर्णन है। 

√●(७) सातवें अध्यायमें ग्रहोंकी युति, दृक्कर्म, ग्रहविम्ब तथा ग्रहयुद्ध आदिका वर्णन है। 

√●(८) आठवें अध्यायमें ग्रहों तथा नक्षत्रोंकी युतिज्ञान का वर्णन है।

√● (९) नवें अध्यायमें ग्रहोंके उदय एवं अस्त होनेके गणित तथा काल-निर्णय वर्णित हैं। (१०) दसवें अध्यायमें चन्द्रशृंगोन्नति तथा चन्द्रोदय आदिकी विधि वर्णित है। 

√●(११) ग्यारहवें पाताधिकार नामक अध्यायमें वैधृति, व्यतीपात आदि पातोंका वर्णन, योग तथा उनका फल, गण्डक, भसन्धि आदि निरूपित हैं । यहाँपर ग्रन्थका पूर्वभाग पूर्ण हो जाता है।

√● (१२) बारहवें भूगोलाध्यायके प्रारम्भमें मयासुरद्वारा पुनः सूर्यांशपुरुषसे प्रश्न हुए हैं। मयासुरने भूगोल-ज्ञान ( बतानेके लिये निवेदन किया है और कहा-हे भगवन् ! इस पृथ्वीका परिमाण क्या है, आकार कैसा है, यह किसके आश्रयसे टिकी है ? इसके कितने विभाग हैं और किस प्रकारसे सात पातालों और भूमिकी अवस्थिति है, किस प्रकार सूर्य दिन-रातकी व्यवस्था करते हैं, समस्त भुवनोंमें किस प्रकार प्रकाश करते हैं तथा किस प्रकार वे विचरण करते हैं? देवता और असुरोंके दिन-रात विपरीत क्यों हैं इत्यादि। इन सभी प्रश्नोंका उत्तर सूर्यांशपुरुषने उन्हें दिया और सृष्टिचक्र का वर्णन किया।

√● (१३) तेरहवें अध्यायमें गोलनिरूपण तथा गोलमें मेषादि राशियोंका प्रतिस्थापन करके उससे खगोल- ज्ञानका वर्णन है और अनेक प्रकारके कालज्ञानसम्बन्धी शंकु, यष्टि, चक्र आदि छायायन्त्रोंके निर्माणकी विधि वर्णित है। 

इस विद्याके फलमें सूर्याशपुरुष बताते हैं कि ग्रहनक्षत्रके और गोलके तत्त्वतः ज्ञानसे मनुष्य ग्रहलोकको प्राप्तकर अन्तमें आत्मज्ञानसे मोक्ष प्राप्त कर लेता है- 

"ग्रहनक्षत्रचरितं ज्ञात्वा गोलं च तत्त्वतः ।
 गृहलोकमवाप्नोति पर्यायेणात्मवान्नरः ॥"
     (सूर्यसिद्धान्त १३ । २५)

√● (१४) अन्तिम चौदहवें अध्यायके आरम्भमें नौ प्रकारके कालमानोंका वर्णन हुआ है- 
(१) ब्राह्म,
 (२) दैव,
 (३) पित्र्य, 
(४) प्राजापत्य, 
(५) बार्हस्पत्य, 
(६) सौर, 
(७) सावन,
 (८) चान्द्र तथा 
(९)नाक्षत्रमान।
इसमेंसे केवल सौर, चान्द्र, नाक्षत्रिक तथा सावन - इन चार मानोंका ही व्यवहार होता है। षष्ट्यब्द जाननेके लिये बार्हस्पत्यमान समझना चाहिये। इन सभी कालमानोंके ज्ञानकी विधि तथा उन मानोंसे क्या-क्या व्यवहार लेना चाहिये-यह बताया गया है, जैसे दिन- रात्रिका परिमाण, उत्तर तथा दक्षिण अयन, संक्रान्ति, संक्रान्तिका पुण्यकाल आदिका व्यवहार सौर माससे जानना चाहिये।

चान्द्रमाससे तिथि, करण, विवाह, क्षौरादिकर्म, व्रत, उपवास, यात्रा आदिका विचार करना चाहिये। आगे भी इसी प्रकार विस्तृत विवेचन है। अन्तमें ग्रन्थकी फलश्रुति है। 

  इस प्रकार सूर्यसिद्धान्त नामक इस ग्रन्थमें खगोल तथा भूगोलज्ञान, अंकगणित, बीजगणित तथा रेखागणितके मूल सिद्धान्त बताये गये हैं। ज्या (Sine), कोटिज्या (Cosine), त्रिज्या (Radus), धनु (Aae) आदि त्रिकोणमितिका पूर्ण गणित वर्णित है तथा दिक्, कालज्ञान और ग्रहों-नक्षत्रोंकी गतियोंका पूर्ण वर्णन है। आज भारतवर्षके अधिकांश पंचांग इसी सूर्यसिद्धान्तके आधारपर बनते हैं। गणेशदैवज्ञका ग्रहलाघव तथा मकरन्दीय सारणियाँ इसी सिद्धान्तकी पोषक हैं। दैवज्ञजगत् में इस ग्रन्थका विशेष समादर है। 

★★★सूर्यसिद्धान्तकी टीकाएँ ★★★

    यह ग्रन्थ अत्यन्त क्लिष्ट है। इसके तत्त्वको समझानेके लिये संस्कृत, हिन्दी तथा अंग्रेजी आदिमें कई टीकाएँ इसपर हुई हैं। प्रसिद्ध संस्कृत टीकाओंमें आचार्य रंगनाथ (शक १५२५)- की गूढार्थप्रकाशिका, नृसिंहदैवज्ञ ( शक १५४२ ) - का सौरभाष्य, विश्वनाथदैवज्ञ (शक १५५०) - की सोदाहरणगहनार्थप्रकाशिका तथा दादाभाई (शक १६४१)- हैं। की किरणावली मुख्य हैं।

★★★ परम सूर्यभक्त शिल्पशास्त्री मयासुरका संक्षिप्त परिचय ★★★

    सूर्यसिद्धान्त ग्रन्थके प्रारम्भमें सूर्यावतार पुरुषके द्वारा मयको सम्पूर्ण ग्रह-नक्षत्रोंका ज्ञान करानेवाली ज्योतिषविद्याकी चर्चा आयी है, अतः संक्षेपमें दैत्य श्रेष्ठ मयका चरित यहाँ प्रस्तुत है -

   जिस प्रकार देवशिल्पीके रूपमें विश्वकर्मा (त्वष्टा)- की प्रसिद्धि है, वैसे ही असुरशिल्पीके रूपमें असुरश्रेष्ठ मयकी प्रतिष्ठा है। शिल्पकला, वास्तुकला, स्थापत्य, चित्रकला तथा खगोलज्ञानके आचार्य होनेके कारण असुरलोकके प्रासाद, उद्यान तथा असुरोंकी सभाओंके निर्माता मय ही हैं। इनके द्वारा विरचित 'मयशिल्पम्' नामक शिल्पशास्त्रीय ग्रन्थ अत्यन्त प्राचीन कालसे भारतमें समादृत होता चला आ रहा है। महर्षि वाल्मीकिने सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड और उत्तरकाण्डके लगभग पचास अध्यायोंके अन्तर्गत मयद्वारा निर्मित लंकापुरीके वर्णनमें मयके विचित्र शिल्पकौशलका परिचय दिया है। असुरोंकी नगरी भोगावतीके निर्माता मय ही हैं। मय केवल दैत्योंके ही नहीं, प्रत्युत देवताओं, मनुष्यों और यहाँतक कि भगवान् कृष्ण और युधिष्ठिरके कहनेपर इन्द्रप्रस्थ नगरी तथा युधिष्ठिरके दिव्य सभाभवनके निर्माता मय ही हैं, उस सभाभवनका फर्श इतना विलक्षण था कि स्थल जलके समान और जल स्थलके समान प्रतीत होता था, इसी कारण दुर्योधन- जैसा शूर एवं बुद्धिमान् भी उसे देखकर भ्रममें पड़ गया।

   पौराणिक कथानकोंके अनुसार मय कश्यपपली दनुके पुत्र हैं। इनकी पत्नीका नाम हेमा है। मन्दोदरी नामकी इनकी सुलक्षणा कन्याका विवाह रावणके साथ हुआ था। सूर्य-चन्द्रमाकी भाँति आकाशमें विचरण करनेवाले तीन पुरोंके निर्माता मय ही हैं। इनका भेदन करनेकी शक्ति केवल भगवान् शिवमें थी, इसीलिये वे त्रिपुरारि कहलाये । शिल्पशास्त्रोंके ग्रन्थोंमें आद्य आचार्यके रूपमें मयकी वन्दना की गयी है। मत्स्यपुराणमें वास्तुविद्याके अठारह आचार्य परिगणित हैं, उनमें मयका विशिष्ट स्थान है। जैसे मय शिल्पशास्त्रमें निपुण थे, वैसे ही भगवान् सूर्यकी कृपासे ज्योतिषविषयक उनका ग्रहगणितीय ज्ञान भी अपूर्व था।
#सूर्य_तत्व_दर्शनम्०१

सूर्य ज्ञान का कोश है। समस्त ज्ञान सूर्य में अधिष्ठित हैं। इस ज्ञान को पाने का अधिकारी कौन है ? श्रद्धावान् । जिस में श्रद्धा है, वही ज्ञान पाता है वा ज्ञानी होता है। श्रद्धा एक जटिल शब्द है। श्रत् (श्री + इति) = जो पकड़ में न आये, बहता रहे, गिरता रहे, चूता रहे, छितराता रहे, भागता रहे, फैलता रहे। अर्थात् निरन्तर गतिशील अमाद्य। श्रत् + धा धारणे + अङ् + टाप्= श्रद्धा। जिसके द्वारा गतिशील = को पकड़ कर रोका जाय अपने पास रखा जाय, अपने अधिकार में किया जाय। जैसे शिव (शान्तात्मा) ने गतिशील तत्व गंगा = स्वर्गीय ज्ञान को अपने सिर (मस्तिष्क वा बुद्धि) में श्रद्धा के बल पर समाहित किया। श्रद्धा को शिव वा शान्तात्मा की शक्ति कहते हैं। श्रद्धा में प्रेम (भक्ति) एवं विश्वास (निष्ठा) का भाव अनुस्यूत है। जिस से हम ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, उसके पास निर्भान्त ज्ञान है, इस का हमें विश्वास होना चाहिये तथा उस का हमारे प्रति भी यह विश्वास होना चाहिये कि हम ज्ञान पाने के अधिकारी हैं वा सुपात्र हैं। आस्था= निष्ठा = विश्वास प्रेमसमर्पण। ये जब एक स्थान / हृदय में होते हैं तो श्रद्धा का जन्म होता है। जहाँ श्रद्धा है, वहाँ ये सब आस्था / निष्ठा / विश्वास एवं प्रेम / भक्ति / समर्पण भी होते हैं।

 भगवान् कहते हैं- 

"श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
 ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधि गच्छति ॥"
(गीता ४/३७)

इस से स्पष्ट है-ज्ञान पाने के तीन सूत्र हैं। १ श्रद्धायुक्त होना, २-तत्पर रहना, ३-संयतेन्द्रिय होना । जो श्रद्धावान् होता है, तत्पर (अत्यधिक अनुरक्त) होता है या जिज्ञासावान् होता है तथा जो अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखता है वा इन्द्रियजित होता है, उसे ज्ञान मिलता है। इतना ही नहीं, इस ज्ञान से उसे परम शान्ति मिलती है। वास्तव में परम शान्त व्यक्ति ही ज्ञानी वा तज्ज्ञ है। ऐसे ज्ञानी गुरु परमेश्वर सूर्य को मेरा नमस्कार ।

पौराणिक सनातन धर्म में सर्पयुक्त दो देवता है- शिव और विष्णु शिव सर्प को अपने अंगांगों में धारण करता है। विष्णु, सर्प के द्वारा धारण किया जाता है- सर्प के ऊपर विश्राम करता है। सर्प दोनों का आभूषण है। जो, सर्प को धारण करता है, वह संहारकर्ता है। सर्प, जिसे धारण करता है, वह पालन कर्ता है। सर्प क्या है ? पेट के बल चलना, रेंगना, सरकना, झुककर चलना वा दायें-बायें चलना अर्थ वाली सूप धातु से सर्प शब्द है। सर्प का अर्थ है- सरकने वाला, टेढ़ा-मेढ़ा चलने वाला, सरणशील, गतिशील, विचर्यमाण, एक स्थान पर कभी न टिकने वाला। सर्प = समय सूर्य समय से शोभायमान है तथा समय को शोभनीय करता है। चर्यमाण समस्त आकाशीय पिण्ड वा ज्योतियाँ सर्प हैं। इन पिण्डों या ज्योतियों का अधिपति सूर्य महासर्प है। सूर्य धीरे-धीरे चलता है, सरकते हुए आगे बढ़ता है, आकाश के एक छोर से दूसरे छोर तक सीधा होकर नहीं चलता। प्रत्युत् पहले ऊपर उठता है, उत्कर्ष बिन्दु पर पहुँचता है, फिर नीचे की ओर जाता है। यह उसका गोलाकार पथ है। वह दक्षिण की ओर झुककर चलता है और पश्चिम में अस्त होता है। इस लिये यह सर्प है। यह इसकी स्वयं की गति है। इसकी इस गति से सम्पूर्ण विश्व गति प्राप्त करता है। यह रूप सर्पों को धारण करने से सूर्य को शिव कहते हैं। गति को धारण करने से वा गतिशील रहने से भी सूर्य, शिव है। आकाश शान्त है। समस्त ग्रह नक्षत्रादि इसके सर्प रूप आभूषण (शोभा) हैं। इसलिये सूर्य सदाशिव है। सूर्य अपनी किरणों से आकाश में घुसा हुआ है। प्रविष्ट होने से यह विष्णु है। सूर्य को अपने भीतर प्रवेश कराने से यह आकाश विष्णु वा प्रभविष्णु है। सदाशिव एवं महाविष्णु को ही महाकाश / परम व्योम कहा जाता है। आकाश को देखना, शिव वा विष्णु का साक्षात्कार है।

शिव को त्रिनेत्र / त्रिनयन / त्र्यम्बक कहा गया है तथा विष्णु को त्रिविक्रम / त्रिलोक / त्रिककुव्याम कहा गया है। सूर्य के प्रकाश द्वारा तीन दिशाएँ जगमगाती हैं- पूर्व, दक्षिण, पश्चिम ये तीन दिशाएँ शिव  किरण परस्पर लम्ब तीन तल अन्तरिक्ष में के तीन नेत्र वा विष्णु के तीन पैर है। नेत्र = रश्मि। पाद = किरण।परस्पर लम्ब तीन तल अन्तरिक्ष में हैं इन्हें त्रिककुब्/त्रिनियन कहते हैं ।ये तीन दिशाएँ सूर्य के प्रकाश से सिंचित रहती हैं। 
इसलिये सूर्य को त्रिनयन / त्रिलोक कहते हैं।
 अन्धकार दूर करने से सूर्य को अन्धकान्तक शिव कहा गया है। श्वेत प्रकाश सम्पन्न सूर्य को कर्पूरगौरं शिव जाना जाता है। पीत प्रकाशमय सूर्य को पीताम्बर धारी विष्णु माना गया है। अस्तंगत वा रात्रि के सूर्य को कृष्ण वर्ण होने से भी कृष्णमूर्ति विष्णु कहते हैं। अतुओं / मासों / दिनों के चक्र क्रम को धारण करने से सूर्य को चक्रधारी विष्णु माना जाता है। दैहिक, दैविक एवं भौतिक दुःखों का कारक होने से प्रकाश त्रिशूल है। इसे धारण करने वाला सूर्य, त्रिशूली है।

सूर्यमण्डल में वर्तमान अग्नि अपने उप वा संहारक प्रभाव के कारण रुद्र है। इसके कारण वनस्पतियाँ मुझती है, प्राणी विकलता को प्राप्त होते हैं सूर्यमण्डल में विद्यमान यही अग्नि जब रसों को पुष्ट है, फलों को पकाती है तथा जीवों का पोषण करती है तो इसे विष्णु कहते हैं। इस प्रकार सूर्य की ये करती रश्मियाँ ही पालक होने से विष्णु तथा संहारक होने से शिव हैं। शिव को रुद्र वा रौद्र कहा गया है। विष्णु को ब्रह्म वा ब्रह्मण्य कहते हैं। पृथिवी पर उतरने वाले सूर्य के प्रकाश को वृषभ कहते हैं तथा द्युलोक वा अन्तरिक्ष में फैलने वाले सूर्य के प्रकाश का नाम गरुण है। इन प्रकाशों को वहन करने से सूर्य का नाम वृषभवाहन शिव तथा गरुणवाहन विष्णु है। सूर्य की श्वेत किरणों को गौर वा गौरी कहा गया है। किरणों में गति होने से भी ये गौरी (गति धारिणी) हैं [गम् + डो =गो + रच् = गौर। + ङीष् = गौरी।]इसलिये सूर्य गौरीपति शिव है। प्राणियों का पालन पोषण करने से ये किरणें पार्वती है।【पृ+वतच्= पर्वत + अण् =पार्वत + ङीप् =पार्वती ।】भविष्य पुराणान्तर्गत सूर्य सहस्रनाम में सूर्य का एक नाम है- उमापतिः । उम् गतौ उमति + अच् + टाप्= उमा = गति, किरण, प्रकाश इस प्रकार उमापति = प्रकाशपति सूर्य सूर्य लक्ष्मीपति है। लक्ष् लक्षते + मन् = लक्ष्म + ङीष्= लक्ष्मी =प्रकाश, जिससे = देखा जाता है। लक्ष्यते अनेन स लक्ष्मी प्रकाश रश्मियों का स्वामी होने से सूर्य लक्ष्मीपति विष्णु है।

अब तक के वर्णन से स्पष्ट है-सूर्य ही प्रसिद्ध देवता शिव है और यही विष्णु है। सूर्य की किरणें उमा पार्वती गौरी है। ये ही लक्ष्मी, रमा श्री है। सूर्य में जो दाहकता / प्रतप्तता है, उसे अग्नि पुरुष कहते हैं। यह अग्नि पुरुष शिव वा विष्णु है। सूर्य में जो चमक है, वह उसकी शोभा / प्रकाशता है। इसे गौरी / पार्वती / उमा / गिरिजा तथा लक्ष्मी / रमा / श्री कहते हैं। अग्नि अपने प्रकाश से जाना जाता है, सम्मानीय है, प्रसिद्ध है, यशस्वी है। अग्नि पुरुष है। प्रकाश रश्मियाँ स्त्री है। इसका अर्थ है-पुरुष की शोभा स्त्री है और स्त्री का सम्मान पुरुष है। यह दोनों अपृथक हैं, युग्म है, मिथुन हैं। सूर्य सम्पूर्ण जगत् का कारक है। इसलिये यह विश्व यमल (स्त्री-पुरुष रूप) है तथा शिव वा विष्णु है। प्रत्येक प्राणी संहरण एवं पालन के गुणों से युक्त होने के कारण शिव एवं विष्णु है। इसलिये मैं सब को नमन करता हूँ।

 शिव का निवास स्थान कैलास है। केल् क्रीडायाम् + अच् + टाप्= केला। + सद् + डः = केलासः । क्रीडाक्षेत्र / दीप्तिस्थल + अण् =कैलास =चमक है और जहाँ मह चमकते / खेलते हैं। सूर्य सदैव आकाश में रहता है। इसलिये यह कैलास वासी = आकाश, जहाँ हुआ। विष्णु को बैकुण्ठ मे रहने वाला कहा गया है। वैकुण्ठ = गोलोक, जहाँ पर किसी की गति / पहुँच नहीं है। सूर्य मण्डल ही वैकुण्ठ वा गोलोकधाम है। इसलिये सूर्य ही वैकुण्ठवासी विष्णु है। विष्णु क्षीर सागर=दूध के समुद्र = प्रकाश के आगार = आदित्य मण्डल में विराजता है।

लिंगति गच्छति वा लिंग:। सूर्य सदैव चलता रहता है इसलिये लिंग है। यह अकेला रहता है, इसलिये एकलिंग है। यह क्षितिज से लगा रहता है, इससे भी यह लग्न / लिंग है। यह चमकता हुआ चलता है, इसलिये ज्योतिलिंग है। द्वादश राशियों में गमन करने से अथवा द्वादश लग्नों के उदय के रूप में यह द्वादश ज्योतिर्लिंग है। शान्त आकाश में स्थित होने से यह शिवलिंग है। शांतिपूर्वक आकाश पथ में चलते रहने से भी यह शिवलिंग है। सूर्यमण्डल आग्न्येय होने से परुष वा कठोर है। इसलिये पुरुषलिंग है। सूर्य अपनी आग्न्येयता वा प्रकाशता से सर्वत्र विद्यमान= सर्वव्यापक है। इसलिये यह अग्निलिंग वा विष्णुलिंग है। लोक में शिवलिंग एवं विष्णुलिंग की पूजा होती है। इस प्रकार सूर्य उपासना की दो पद्धतियाँ है- 

१. ज्वालीय- इसमें अग्नि की ज्वालाओं में घृत की आहुति दी जाती है इसे हवन कहते हैं। इससे अग्निलिंग तृप्त होता है।

 २. जलीय - इस में सूर्य की किरणों को जल दिया जाता है। इसे तर्पण कहते हैं। इसका विकृत रूप है शिलाखण्ड पर जल की धारा को गिराना। इसका नाम रुद्राभिषेक है।

यह विश्व अग्निषोमीय है। अग्नि सूर्य है। चन्द्रमा सोम है। शिव के ललाट पर चन्द्रमा है। चन्द्रमा जलीय ग्रह है। इसका अर्थ हुआ शिव (सूर्य) को जल प्रिय है। शिव के मस्तक पर गंगा की धारा प्रवाहित है। गंगा भी जल तत्व है। इस से भी सिद्ध हुआ कि सूर्य (शिव) को जल प्रिय है। सूर्य को अर्घ्य देना हो रुद्राभिषेक है। अग्नि रूद्र है प्रज्ज्वलित अग्नि में घी की आहुति डालना भी रुद्राभिषेक है। इस से अग्नि प्रज्ज्वलित होती है, अर्थात् सूर्य प्रसन्न होता है। हवन और तर्पण से सूर्य की उपासना करना प्रशस्त एवं सत्यमार्ग है।

शिव को मखान्तक (यज्ञ विध्वंसक) कहते हैं। इसलिये शैव यज्ञ हवन नहीं करते । वे जलधारा से सूर्य को तृप्त करते हैं। प्रज्ज्वलित अग्निमें अर्थात् हवन कुण्ड में जल को छीटें मारना भी रुद्राभिषेक है। किन्तु इससे अग्नि नहीं बुझना चाहिये। प्रज्ज्वलित पार्थिव अग्नि साक्षात् सूर्य है। इस की प्रदक्षिणा करना, सूर्य की परिक्रमा के तुल्य है। दक्षिणावर्त परिक्रमा करने से तेज एवं बल मिलता है। सूर्य अपनी पत्नी पृथ्वी की परिक्रमा दक्षिणावर्त होकर सतत करता हुआ तेजस्वी एवं बली बना रहता है। हम सब का भरण पोषण करने से पृथ्वी का नाम पार्वती है। यह सूर्य (शिव) की भार्या है भोजन करना = भूख करना = को शान्त करना= जठराग्नि की सेवा करना भी हवन / यजन / यज्ञ याग है। आचमन करना = जलपान करना = प्यास मिटाना भी अर्घ्य / अभिषेचन है। सभी लोग भोजन एवं पान द्वारा सूर्य की नित्य उपासना करते हैं। सूर्य उपासना में हवन एवं तर्पण के साथ-साथ नवन (नु स्तुतौ नौति + अप्) भी करना चाहिये। नवन =स्तुति, प्रशंसा, स्तवन, नाम जप, नाम संकीर्तन । सूर्य के मण्डल को स्मृति में उतारना ध्यान है। हमें नित्य सूर्य का ध्यान करना चाहिये। कहा है-"ध्येयः सदा सवितृमण्डलमध्यवर्ती नारायणः।" (भविष्यपुराण। )सूर्य मण्डल के मध्य में स्थित यज्ञ पुरुष नारायण का ध्यान करना चाहिये।

सूर्य अर्धनारीश्वर है आधा नारी (प्रकृति) एवं आधा ईश्वर (पुरुष) मिलकर पूर्ण वा अर्धनारीश्वर हुआ। नारी =सौम्य / मृदु । पुरुष = परुष / कठोर। सूर्य का उत्तर एवं दक्षिण गोल में होना, उसका अर्धनारीश्वर होना है। शीत ताप, सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु, ज्ञान-अज्ञान, प्रकाश अन्धकार का कारक होने से भी सूर्य अर्धनारीश्वर है। सूर्य के अर्धनारीश्वर होने से विश्व में द्वन्द्व है, पक्ष-विपक्ष हैं, शत्रु-मित्र हैं। शरीर का कारक अर्धनारीश्वर सूर्य है इसलिये शरीर में दायाँ-बायाँ आगा-पीछा, ऊपर-नीचे, मृदुता कठोरता है। जहाँ जिसमें चर-अचर, लाभ-हानि, उत्पत्ति-विनाश, योग-वियोग, प्रवृत्ति-निवत्ति, लघुता गुरुता, तनुता-पृथुता, द्रुतता-मन्दता, लज्जा-घृष्टता, प्रेम-घृणा, काम-क्रोध के भाव हैं, वहाँ वा उसमें अर्धनारीश्वर सूर्य है। अर्धनारीश्वर = अर्धनारी + अर्ध ईश्वर = पूर्ण तत्व ।

एक में दो का होना वा दो का परस्पर एक सूत्र से बँधे रहना ही अर्धनारीश्वरत्व / पूर्णत्व है। जैसे शरीर के सन्दर्भ में -२ बाहु, २ कर्ण, २ भौंह, २ पलक, २ ओष्ठ, २ गाल, २ नासाछिद्र, २ अंस (कंधे), पार्श्व (बगल), २ फुफ्फुस (फेफड़े), २ वृक्क, २ वृक्ष, २ प्रोथ, २ वृषण, २ पृष्ठ (आगा-पीछा हैं। ये दो परस्पर पूरक हैं। शरीर में अस्थियों से दृढ़ता है तो मांसपेशियों से लचक है। इसलिये यह शरीर पूर्ण है। पूर्ण होने से प्रत्येक शरीर अर्धनारीश्वर है। अतएव यह देह पूज्य है और सूर्य का आवास वा रूप है। इस शरीर को मैं नमस्कार करता हूँ।

देवों में सर्वप्रथम गणेश की पूजा होती है। गणेश को एकदन्त कहा गया है। इ गतौ एति + कन् =एक=गतिशील, चर ।दम् दाम्यति + तन् =दन्त= दमन करने वाला, जीतने वाला, जेतनशील, जेता । एकदन्त = जो चलते हुए अन्धकार पर विजय पाता है। सूर्य ही एकदन्त गणेश (ग्रह गणों का ईशनकर्ता वा नियामक है। गणेश को मूषकवाहन कहते हैं। मूषक (अन्धकार) है वाहन जिसका वह सूर्य । मूष् मोषति + कन्= मूषक = अन्धकार, जो विश्व को चुरा (छिपा) लेता है। रात्रि, अन्धकार की धात्री है। सूर्य, रात्रि के गर्भ से बाहर आता है। अर्थात् रात्रि / अन्धकार से प्रकाश का जन्म होता है। सूर्य पश्चिम दिशा में जाकर अन्धकार को अपना वाहन बनाता है, तथा पूर्व दिशा में आकर वह अपने वाहन मूषक (अन्धकार) को त्याग देता है।

गणेश लम्बोदर हैं। लम्ब् लम्बते + अच् = लम्ब = नीचे की ओर लटकता हुआ, दोलायमान, झुकता हुआ। उद् + ऋ गतौ अरति + अप् = उदर = ऊपर की ओर उठता हुआ, गति करता हुआ। लम्ब + उदर= लम्बोदर जो पहले ऊपर की ओर बढ़ता है तथा मध्याकाश में पहुंचकर धीरे धीरे पश्चिम दिशा की ओर लटकता है, नीचे जाता है। लम्बोदर नाम सूर्य का लम्बाई एवं ऊंचाई लिये हुए जो आकाश मार्ग में विचरता है, वह सूर्य ही लम्बोदर है। गणेश, हस्तिमुख / गजवदन / गजानन है। हस् हसति + क्तिच्= हस्ति= हंसता हुआ प्रसन्न प्रकाशित, रश्मियुक्त, आभामय, किरणवान् प्रकाशपूर्ण मुख मण्डल, हवनकुण्ड, पास विचर हस्तिमुख = चमकता हुआ मुख, हँसता हुआ चेहरा, प्रकाशित आदित्य मण्डल । देदीप्यमान सूर्य को हस्तिमुख कहते हैं। गम् + ड=गः । जन् + इ = जः। गः + जः = गजः। चलते हुए जनन कर्म करने वाला वा प्रकाश उत्पन्न करते हुए चलते रहने वाला आ + अन् + ल्युट् = आननम् । सब कुछ खाने वाला, मुख अन्धकार भक्षक सूर्यमण्डल ।

गज + आनन = गजानन चलता है, प्रकाश करता है, अन्धकार खाता है जो, उसका नाम गजानन सूर्य है।

 गणेश वक्रतुण्ड है। तुण्ड् तुण्डति तुण्ड् + अच् =तुण्ड = मुख, जो पास को कुतरता, तोड़ता, खाता है। किरण, जो अन्धकार का कर्तनकरती है। वक्रतुण्ड=वर्तित प्रकाश की किरण, आवर्तित प्रकाश, छितराया हुआ प्रकाश, सूर्य का वह प्रकाश जो ग्रह पिण्डों से टकराकर पृथ्वी पर अपना प्रभाव डालता है। वक्र प्रकाश का स्वामी होने से सूर्य वक्रतुण्ड है। सूर्यमण्डल सोधा नहीं होता। यह दक्षिण दिशा की ओर कुछ झुका होता है। इसलिये भी इसे वक्रतुण्ड कहते हैं। गणेश को दो पलियाँ हैं- वृद्धि (सम्पन्ता) तथा सिद्धि (सफलता) । लक्ष्मी वृद्धि है। गौरीसिद्धि है। लोक में गौरी गणेश के पूजन का अर्थ है, प्रकाश युक्त स्थान वा भाव में रहना। 

इस लेख को मैं ने वैयक्तिक दृष्टि से नहीं लिखा, वैदिक दृष्टि से लिखा है। वैयक्तिक संकीर्ण, = संकुचित, स्थानीय, कालीय । वैदिक व्यापक विस्तृत, पूर्ण, समष्टिगत तथा देशकाल से परे।
(क्रमशः)

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